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विकुभ- विशेषांक ]
સંવત્પ્રવર્તક વિક્રમાદિત્ય ઔર જૈનધર્મ
[ १७७ विक्रम संवत् सम्बन्धमें एक लेखक महोदयने बहुत ही विचित्र कल्पना की है कि"विक्रम संवत्का जन्म बौद्ध और जैन धर्मों पर ब्राह्मणधर्मकी महान् विजय स्मृति है । '१७ ब्राह्मणधर्मका गौरव बतानेके लिये वे अपनी कल्पनासे संवत्प्रवर्तकको बौद्ध और जैनधर्मका नाश करनेवाला मानते हैं । लेखक महोदयकी युक्ति यह है कि यह संवत् यदि जैन संवत् होता या जैनोंका चलाया होता तो ब्राह्मण अपने पंचांगमें इसे कदापि स्थान न देते, क्योंकि बौद्ध-जैनधर्मसे ब्राह्मणोंकी घोर शत्रुता थी । लेखक महोदय आगे चलकर यह स्वीकार करते हैं कि जैन साहित्य में विक्रमादित्य की कथा विशद रूपसे मिलती है तथा संवत्कर्ता विक्रमका नाम साफ लिखा है, तथापि जैनधर्म से ब्राह्मणों के खिलाफ होनेसे गर्दभिल्लके पुत्र विक्रमादित्य की बात सत्य मननेको तैयार नहीं, उन्होंने अपने लेखमें ज़बरदस्ती यह ठूंसने की कोशिश की है कि विक्रमादित्य जैनियोंका संहारक व उच्छेदक था । विक्रमादित्य जैनियोंका घोर शत्रु था या नहीं ? यह तो उन्हें बाकी लेख बतायेगा, परन्तु उन्होंने जिस युकिके आधार पर यह कल्पना खड़ी की है वह हास्यास्पद ही नहीं बल्कि विचित्र और निस्सार भी है । वे स्वयं अपनी युक्तिको बुद्धिकी कसौटी पर परख लें, उनकी ही युक्तिको उनको सेवामें भेंट करते हुए बताना पर्याप्त है कि यदि विक्रमादित्य जैनधर्मके संहारक व उच्छेदक होते तो जैनोंमें उनका नाम सम्मान पूर्वक कहीं भी उपलब्ध न होता । लेखकके मन्तव्यानुसार जैनोंसे शत्रुता भी ली जाये तो भी राज्यभय, राज्यप्रेप, अथवा लोभमें आकर ब्राह्मणोंने विक्रमसंवत्का प्रयोग किया हो तो यह असम्भव नहीं । जैन साहित्य बतलाता है कि विक्रमादित्यने शत्रुञ्जय तीर्थयात्रा का एक महान् संघ निकाला, ११३ जिनमन्दिर बनवाये, और ७०० मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया । २० शत्रुञ्जय महात्म्य तथा अन्य जैन साहित्य ग्रन्थों में विक्रम द्वारा शत्रुञ्जयके जीर्णोद्वारके उल्लेख उपलब्ध होते हैं । शत्रुञ्जय महातीर्थ के उद्धारकों के नामवर्णन करते हुए श्री धर्मघोषसूरि 'शत्रुञ्जय महातीर्थकल्प' में लिखते हैं
संपs विक्रम बाड शालपलित्तामदत्तरायाइ | तं उद्धरिहिंति तयं सिरि सत्तुंजय महातिथ्यं ॥
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इस गाथा द्वारा शत्रुञ्जय महातीर्थ के उद्धरकों में संप्रतिराजा, विक्रमराजा, बाहडमंत्री, शालिवाहनराजा, प्रादलिप्तसूरि, आमराजा, दत्तराजाके नाम बताये हैं ।
अभिधानराजेन्द्र कोष भाग ५ पृ. ८५३ पर दिये गये एक उद्धरणसे भी इस बातको पुष्टि होती है
१९ नागरीप्रचारिणीपत्रिका भा. १४ पु. ४ पृ. ४५१. २० जैनाचार्यो - मु. न्यायविजयजी ।
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