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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७६] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [ કમાંક ૧૦૦–૧–૨ और उस समय एक करोड़ सोनेके सिक्के देनेको थेलियां मंगाई । श्री सिद्धसेनजीने उस भेंटको स्वीकार न करते हुए राजाको उपदेश दिया कि इनको ऐसे पीड़ित एवं दुःखी मनुष्योंमें बांट दो जो कर्जसे दबे हुए हैं। श्री सिद्धसेनजीकी इस निस्पृहताका राजा विक्रमादित्यके हृदय पर और भी गहरा प्रभाव हुआ और श्री सिद्धसेनजीके चरणों में गिरकर उसने सकुटुम्ब जैनधर्म स्वीकार किया और वह द्रव्य कर्जदारों में बांट दिया गया, जिससे विक्रमादित्यके समस्त राज्यमें कोई कर्जदार न रहा। इस प्रकार उऋण हो जानेसे प्रजाने विक्रमादित्यका बड़ा उपकार माना, और ऋणमुक्त होनेकी प्रसन्नता प्रगट करने, इस स्मृतिको चिरस्थायी करने एवं अपने उपकारी राजाकी कीर्ति विश्वदिगंत करनेके लिये विक्रमसंवत् प्रारम्भ किया। इस प्रकार संवत्प्रवर्तक यही गर्दभिल्लवंशी शकारि विक्रमादित्य थे। . कई ऐतिहासिक मालवसंवत्को ही विक्रमसंवत् होना मानते हैं और कई इसे कृतसंवत्के नामसे भी कहते हैं । उनका मन्तव्य है कि विदेशियों की जीत पर मालवगणने इस संवत्का प्रचार किया एवं इस तिथिसे कृत युगका आरम्भ माना अतः मालवसंवत् अथवा कृतसंवत् भी कहने लगे। एक लेखकने इसे क्रीतसंवत् लिखा है । अस्तु, जो हो और चाहे जितने संवत् चले हो परन्तु इतने समयतक विक्रपसं. के अतिरिक्त कोई चल नहीं सका ! पाश्चात्य विद्वानों और वर्तमान कालीन अनुसन्धानकोंका मन्तव्य है कि विक्रमसंवत्प्रवर्तक राजा जैन धर्मानुयायी थे और जैनियोंने हो इसका संचालन किया था । डाक्टर भाउ दाजी कहते हैं "I believe that the era (Vikrama) was introduced by the Buddhists or rather the Jains." अर्थात् मेरा मन्तव्य है कि - विक्रमसंवत् बौद्धों-बल्कि जैनोंने प्रारम्म किया है । एक दूसरे विद्वान् (जर्नल आफ धी बोम्बे बेंच आफ दी रायल एशियाटिक सोसायटी पु. ९ पृष्ठ १४५ में) लिखते हैं कि “ Vikram Samvat is used by the Jains only. ". अर्थात् विक्रम संवत्का उपयोग केवल जैनोंने ही किया है।८ १७ इति श्रीविक्रमादित्यः शास्त्यवन्तीं नराधिपः । ___ अनृणां पृथिवों कुर्वन् प्रवर्तयति वत्सरम् ॥-प्रभावकचरित । तदनु गर्दभिल्लस्यैव सुतेन विक्रमादित्येन राज्ञोजयिन्या, राज्यं प्राप्य सुवर्णपुरुषसिद्धिबलात् पृथिवीमणां मुर्वता विस्मसंवत्सरः प्रवर्तितः । मेरुतुजाचार्यविरचित स्थविरावलि अथवा विचारश्रेणी । ....१८ प्राचीन भारतवर्ष-(डा. टी. एल. शाह.) भा.. ४ पृ. ४३-४४. . For Private And Personal Use Only
SR No.521597
Book TitleJain_Satyaprakash 1944 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1944
Total Pages244
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size120 MB
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