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વિક્રમ-વિશેષાંક ] સંવતપ્રવર્તક વિક્રમાદિત્ય આર જેનધર્મ [ ૧૭૫
शकारि विक्रमादित्य शिवजीके परमोपासक और देवीभक्त थे। उन्होंने उज्जैनमें सवा दोसौ फीट ऊंचा महाकाल-महादेवजीका मंदिर बनवानेको उदारता की थी। परन्तु इस बातके प्रबल प्रमाण उपलब्ध होते हैं कि वे एक जैनाचार्यसे प्रभावित होकर जैनधर्ममें दीक्षित हो गये थे, इतना ही नहीं बल्कि अनेक मन्दिरोंका निर्माण, प्रसिद्ध जैन तीर्थ शत्रुञ्जयकी यात्रा व जीर्णोद्धार आदि कई एक कार्य एक जैनके नाते भक्तिपूर्वक किये थे ।
वीर विक्रमादित्यके धर्मगुरु आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर जन्मसे कट्टर ब्राह्मण थे। बाल्यकालसे ही उन्हें विद्याभिरुचि थी। थोड़े ही समयमें वे प्रकाण्ड एवं प्रसिद्ध विद्वान् होगये। उन्होंने अपने विजेताका शिष्य होजानेकी घोषणा कर रखी थी, परन्तु उनसे बड़े बड़े विद्वान् भी थर्राते थे। एक बार वादविवादमें वृद्धवादी जैनाचार्यने उन पर विजय प्राप्त कर लो, और श्री सिद्धसेन उन्हींके शिष्य एवं जैन साधु हो गये । इनके विद्वत्तापूर्ण भनेक अन्य उपलब्ध हैं।
__एक बार श्री सिद्धसेन विहार करते हुए उज्जयिनीमें पंहुचे और वीर विक्रमको सभामें जाकर अपने काव्यचातुर्य एवं पाण्डित्यसे राजाके दिलमें अपने प्रति श्रद्धा उत्पन्न कर लो। कुछ समय व्यतीत होने पर एक दिन वे महाकालेश्वरके मन्दिर में गये और वहां शिवलिंगकी ओर पांव कर सो गये। दिन होते ही उनके इस कृत्यसे चारों ओर कोलाहल मच गया और यह खबर राजके कान तक भी पंहुची। राजाको भी यह बुरा महसूस हुआ
और आज्ञा भेज दी कि ऐसे व्यक्तिको मारपीट कर जैसे भी हो सके वहांसे हटा दिया जाये। ज्योंही ब्राह्मणोंने उन्हें मारना प्रारम्भ किया त्योंही वह मार सिद्धसेनको न लगकर राजाके अन्तःपुरकी रानियोंको लगने लगी। इससे राजमहलमें भी कोलाहल मच गया, निदान राजा स्वयं मन्त्रियों सहित वहां पर आया और नम्रता पूर्वक श्रीसिद्धसेनसे प्रार्थना की : महाराज! इस प्रकार शिवजीका अपमान न करें, आपको भी भगवान महादेवकी स्तुति ही करनी चाहिये। सिद्धसेनजीने उत्तरमें कहा-राजन् ! इस शिवलिंगके नीचे भगवान पार्श्वनाथकी प्रतिमा विद्यमान है, तुम्हारे राज्यमें यह एक अन्याय है, जिसे दूर करनेके लिये मुझे ऐसा करना पड़ा है, अगर आप देखना ही चाहते हैं तो देखिये । ऐसा कह कर कल्यागमन्दिर स्तोत्र बोलना प्रारम्भ कर दिया, अभी १२-१३ श्लोक ही बोले गये कि शिवलिंग फट गया और अन्दरसे अवन्ती पार्श्वनाथ भगवानकी प्रतिमा प्रगट हुई।
राजा यह चमत्कार देखकर दिङ्मूढ़ हो गया और पूछा-महाराज ! यह क्या ? सिद्धसेनजीने राजाकी मनोदशा जानकर धर्मलाभ पूर्वक मूर्तिकी प्राचीनता एवं उसका पूर्व इतिहास कह बताया । इससे राजा प्रभावित हो जैनधर्मका पूर्ण श्रद्धालु एवं भक्त बन गया,
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