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१७४] श्री जैन सत्य
[भांड १००-१-२ बीर विक्रमादित्य-गर्दभिल्लकुमार, विक्रमसिंह, विक्रमसेन आदि नामोंसे भी प्रसिद्ध थे, अमरकोषकारने तो इनका नाम शूद्रक लिखा है।
. विक्रमादित्यको राजधानी उज्जयिनीमें थी, उज्जयिनीका जैनधर्मके साथ पहिलेसे ही धनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। विक्रमादित्यने प्रजाके हर प्रकारके कष्टोंको दूर करनेके लिये कोई कमी न रखी, यहांतक कि प्रजाकी आन्तरिक स्थिति जानने के लिये वे गुप्त रूपसे भी कभी कभी पर्यटन किया करते थे । एक बार विक्रमादित्य अपने छोटे भाई भर्तहरिको राज्यभार सौंपकर बाहर चले गये, परन्तु पीछे भतृहरि अपनी राणी पिंगलाके कलंकित चारित्रसे दुःखी विरक्त एवं त्यागी हो गये । ज्यों ही विक्रमादित्यको यह समाचार पहुंचे वे तुरन्त वापस आये और अपना कार्य संभाल लिया।
____ विक्रमसंवत् २३ में रचित 'ज्योतिर्विदाभरण' नामक ग्रन्थमें लिखे अनुसार विकमादित्यके पास तीन करोड़ पयादा, एक करोड़ अश्वदल, चार लाख नौकादल, और २४३०० हाथी थे ।१५ उनकी राजसभामें ८०० मांडलिका राजा हाज़र थे इतना ही नहीं बल्कि रोमके राजके साथ उनका पत्रव्यवहार था।
विक्रमादित्य परदुःखभंजन और दानेश्वरीके विरुदसे विभूषित थे, उनकी उदारता व दानशीलताकी कथायें देशभर में प्रसिद्ध हैं । वैतालपचीसी और बत्तीसपुतलीकी कथाओं के पाठकों को विक्रमादित्यके दया आदि गुणोंके बिषयमें अच्छा परिचय मिलता है। न्यायप्रियता, दयालुता, और प्रजाके प्रति अत्यन्त प्रेमपूर्ण व्यवहारसे विक्रमादित्य प्रत्येकके हृदयमन्दिरमें श्रद्धापात्र हो गया । विक्रमादित्यमें नाम मात्रको भी अभिमान न था, इतने बड़े साम्राज्यका अधिकारी और समृद्ध होने पर भी उसे परसेवासे प्राप्त द्रव्यसे अन्नग्रहण करने और क्षिदा नदीमें से स्वयं ही जल ले आकर पीनेको प्रतिज्ञा थी। ऐसा भी कहा जाता है कि वह चटाईपर सोता था।
विक्रमादित्यने जैनधर्मके प्रकाण्ड विद्वान् श्री सिद्धसेनजी दिवाकरके आदेशसे (जिनका परिचय आगे दिया जा रहा है) प्रजाको ऋणमुक्त कर दिया, विक्रमादित्य के राज्यमें कोई भी किसीका कर्जदार न रहा, इस महान् कष्टसे मुक्ति दिलानेवाले विक्रमादित्य 'परदुःखभंजक' कहेलाने लगे और इसकी प्रसन्नता व स्मृतिमें प्रजाने विक्रमसंवत्सर प्रारम्भ किया।
गाथासप्तशति के कर्ता 'हाल ने जो ईस्वीसन् ६९ के लगभग या उससे कुछ पूर्व हुआ है, एक गाथामें विक्रमादित्यकी दानशीलताका वर्णन किया है।
१५ जीवदया' ( अक्टूबर १९४३) १६ शत्रुञ्जयप्रकाश, पृ. १४
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