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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७२ ] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [ १००-१-२ ૧૧ पहिले ही सब तरहसे सावधान कर दिये जानेसे शक सामन्त बहुत प्रसन्न हुए और आचार्यका आभार मान कर चले गये । ठीक निश्चित दिन पर इनके योद्धा तैय्यार होकर बैठ गये और ज्यों ही रींगने के लिये गर्दभिल्ल राजाने "मुंह खोला त्योंही योद्धाओंने दनादन बाण बरसाकर उसका मुंह भर दिया । जैसे ही राजाकी गर्दभी विद्या व्यर्थ गई उसकी सब शक्ति नष्ट हो गई,और शकोंने उस पर विजय प्राप्त कर उसे आचार्य कालक के सामने ला खड़ा किया। आचार्य कालकको किसी प्रकारका बदला लेने की इच्छा ही न थी, उन्होंने सर्व प्रथम साधी सरस्वतीको कैसे छोड़ देने की मांग की, और बाद में सब शक सामन्तोंको जिन्हें वे जागीरें देनेका आश्वासन देकर ले आये थे; उन्हें अपने वचनानुसार जागीरें बांट दी, और उज्जयिनीके राज्यासन पर उस शाहको बैठाया जिसके पास जाकर कालकसूरि स्वयं रहे थे । डा. शार्पेन्टियर इस घटना के सम्बन्धमें अपने विचार इस प्रकार प्रगट करते हैंकि 66 यह दंतकथा ऐतिहासिक रहस्यसे सर्वथा शून्य हो ऐसा नहीं, क्योंकि भिन्न भिन्न दंतकथाओंके आधारसे मालूम होता है कि उज्जयिनीके प्रख्यात विक्रमादित्य के पिता गर्द मिलने जैनाचार्य कालकका अपमान किया था, वे उसका बदला लेने शकोंके प्रदेशमें गये जिनका राजा साहासादि ( राजाओं का राजा) कहलाता था !.. . इस परसे यह दन्तकथा ऐतिहासिक दृष्टिगत होती है, चाहें जो हो पर यह कथा बताती है कि कालकरिने अनेक शक राजाओंको उज्जयिनी पर चढ़ाई करने और गर्दै भिल्ल वंश उखेड़ डालने के लिये समझाया, परन्तु कुछ वर्षों बाद उसके पुत्र विक्रमादित्यने उनको निकालकर अपने पूर्वजों की गदी प्राप्त की । १२ भारतीय ऐतिहासिक विद्वान् भी इसकी प्रामाणिकता स्वीकार करते हुए लिखते हैं" जैन ग्रन्थ ' कालकाचार्य कथानक में पश्चिम भारत पर हुए शक - आक्रमणका मनोरञ्जक वर्णन उपलब्ध होता है, इस बातके प्रबल प्रमाण हैं कि इस ग्रन्थमें जो जैन इतिवृत्त उपलब्ध होता है वह अधिकांशमें सही है । इससे प्रतीत होता है कि शक लोग बोलान दर्रेके मार्गसे बलोचिस्तान होते हुए सिन्धकी ओर आये थे, उनके सेनापति 'शाही' और प्रमुख सेनापतिको 'शाहानुशाही' कहा जाता था उनकी एक शाखाने उज्जैनको विजय किया । १३ शक सामन्तोंने कालकसूरिकी आज्ञा से गर्दभिल्लको जीवित ही छोड़ दिया, परन्तु पुत्रों सहित उस देश से निकल जानेकी आज्ञा दे दी । बादमें गर्दभिल्ल कहां जाकर रहा : इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं है। एक विद्वान लेखकने उसका जर्मनीमें भाग जाना बतलाया है, वह किस प्रकार गया इसे लेखक के शब्दों में पढ़िये ११ गर्दभिल्लराजाने नहीं किन्तु उसकी साधित गर्दभीने मुंह खोला ऐसा उल्लेख भी मिलता है । १२ ' उत्तर हिन्दुस्तानमां जैनधर्म' ( चीमनलाल जेचन्द शाह एम. ए. ) पृ. १७०. १३ प्राचीन भारत - प्रो. वेदव्यास एम. ए. एलएल. बी. पृ. २४८. For Private And Personal Use Only
SR No.521597
Book TitleJain_Satyaprakash 1944 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1944
Total Pages244
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size120 MB
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