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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir વિક્રમ-વિશેષાંક ] સંવપ્રવર્તક વિક્રમાદિત્ય ઔર જેનધર્મ [ ૧૭૧ इस निन्दनीय व्यवहार व अत्याचारसे नगरमें हाहाकार मच गया । प्रजाने मिलकर बहुत अनुनय-विनय की, मन्त्रियोंने बहुत समझाया, और किसीका प्रभाव न पड़ा देखकर अन्तमें स्वयं कालकसूरिने बहुत विनम्र एवं मार्मिक शब्दोंमें बहिनको छोड़देनेके लिये प्रार्थना की, परन्तु गर्दभिल्ल अपने दुष्कृत्य एवं हठसे विचलित न हुआ । अन्तमें श्रीकालकसूरिने इसे आपद्धर्म मानकर स्वधर्मरक्षार्थ साधुवेश त्याग दिया और निरुपाय व विवश हो किसी राजसत्ताकी सहायता लेने एवं इस अत्याचारके प्रतीकारके लिये शहरको छोड़ दिया। उस समय उज्जयिनीके शासक गर्दभिल्लसे लोहा लेनेवाला कोई राज्य नहीं था इस लिये श्रीकालकमूरि सिन्धु नदीके दूसरी ओर शक प्रजाके देशमें जा पंहुचे, और वहांके एक शकवंशी शाह (मांडलिक राजा)के दरबारमें आनाजाना प्रारम्भ किया। अपने ज्योतिष शास्त्रके प्रगाढ़ ज्ञान एवं विद्वत्ताके प्रभावसे वहांकी जनता एवं शाहका हृदय मोह लिया और अपने वशमें कर लियो । मौका पाकर शक प्रजाके अनेक सामन्तोंको बड़ी बड़ी जागीरे दिलादेनेका वचन देकर हिन्दमें ले आये और सर्व प्रथम सौराष्ट्र प्रदेशमें आकर डेरा लगाया, चौमासा-वर्षाऋतु प्रारम्भ होनेसे युद्ध के लिये वह समय उपयुक्त न समझा, परन्तु ऋतु अनुकूल होते ही गुजरात प्रदेश होकर शकोंने अवंती पर आक्रमण कर दिया। पहिले तो राजा गर्दभिल्ल अपने बाहुबल व सैन्यके भरोसे पर युद्ध में उतर आया, परन्तु शकोंकी वीरता, युद्ध कौशल्य, और आश्चर्यजनक तीरंदाजी देखकर घबडो गया, और अन्तमें विवश होकर शहरके दरवाजे बन्द करा दिये एवं अपने निश्चित दिनको गर्दभी विद्याकी शरण लेनेका निर्णय किया । शहरके दरवाजे बन्द कर लेनेका समाचार शक सामन्तोंने आचार्य कालकको सुना दिया और उन्होंने सब परिस्थिति भलीभांति समझकर सब सामन्तोंको अपने पास बुलाया और समझा दिया कि-असुक दिन गर्दभिल्ल अपनी गर्दभी विद्या साधन कर आवाज करनेको मुंह खोलेगा, उसकी आवाज़ जिसके भी कानमें पड़ेगी वह जीवित नहीं रहेगा। इस लिये अधिकांश सेनाको सीमासे बाहर ही रखा जाये और कुछ तीर चलानेवाले निपुण सैनिकोंको कानमें रुई आदि देकर दरवाजेके पास सन्नद्र रखें और ज्यों ही रींगनेके लिये मुंह खुले त्योंही सब योद्धाओके बाण छूट कर उसका मुंह भर दें ताकि आवाज ही बाहर न निकल सके । इस प्रकार ८. निशीथचूणि आदि प्राचीन ग्रन्थकारोंने इनको वंशसे 'सग' और उपाधिसे 'साहि' लिखा है । इनका मुखिया 'साहानुसाहि' कहलाता था ।...ये साहि अथवा शकसीथियन जातिके लोग थे, इनका निवासस्थान ईरान अथवा बलख था ।-(नागरीप्रचारिणीपत्रिका भा. १० पु. ४ पृ. ६३८). ९ ‘वशीकृतः सूरिवरैः स साहिः' । -(कालकाचार्य कथा) १. आचार्य कालक ९६ सामंतोंको लेकर काठियावाड़में उतरे ।। -(ना. प्र. प. भा. १० पु. ४ पृ. ६३८) For Private And Personal Use Only
SR No.521597
Book TitleJain_Satyaprakash 1944 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1944
Total Pages244
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size120 MB
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