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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७० ] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ १३ और शकोंके ४ वर्ष राज्य करने का उल्लेख है । " इस प्रकार महावीरनिर्वाणसे ४७० वर्षके बाद गर्दभिके पुत्र विक्रमादित्यने उज्जयिनीका राज्य प्राप्त किया और संवत्सर चलाया । गर्द भिल्ल कौन था ? विक्रमादित्य गर्दभिल्लवंशी क्यों कहे गये ? तथा उन्हें राज्य - प्राप्ति कैसे हुई ? इत्यादि तत्सम्बधी विशद वर्णन जैन ग्रन्थोंते महीभांति उपलब्ध होता है, जिसका संक्षिप्त वर्णन यहां दिया जता है । ईस्वी सन् पूर्व ७४ में नभोवाहनको मृत्यु हो गई, उसका कोई पुत्र न था, अन्त में अवन्तीकी सत्ता क्षत्रियराजा दर्प के हाथ आगई, दर्पण केवल एक पराक्रमी राजा ही नहीं था बल्कि उसने गर्दभीविद्या भी सिद्ध की हुई थी, जिसे वह आवश्यकता पड़ने पर अमुक निश्चित दिन साधन कर सकता और अपना मुंह खोलकर गर्दभको सी रोंगनेको आवाज निकाल सकता था, जिसका प्रभाव यह था कि सात सात कासतक जिसके कान में उसका स्वर सुनाई दे उसकी मृत्यु हो जाये । इस गर्दभी विद्या के कारण उसका नाम गवरूप-गर्धवसेन व गर्द भल्ल प्रसिद्ध होगया और उसके वंशका नाम भी गई भिल्ल कहलाने लगा । [ मा १००-१-२ गर्दभिका विवाह धार (गुजरात) के राजा तात्रलिपर्षिकी कन्या मदनरेखासे हुआ था और इसीकी कुक्षिसे खंभात ( जिसे उस समय बाटो भी कहते थे ) में विक्रमादित्य का जन्म हुआ था । गर्दभल्लकी और कितनी रानियां थीं इसका स्पष्ट उल्लेख कहीं नहीं मिलता । राजा गर्दभिल इतने बड़े साम्राज्य और गर्दनी विद्या धमण्डमें विवेक न रखा विलासी एवं व्यभिचारी हो गया । एकबार जैनधर्मके प्रखर विद्वान् श्री कालकसूरि एवं उनकी बहिन सरस्वती, जो दीक्षा लेकर साध्वी हो चुकी श्री, विहार करते हुए अवन्ती में आये और वहीं चतुर्मास किया । साध्वी सरस्वती अत्यन्त स्वरूपवान एवं लावण्ययुक्त थी। एक बार वह गोचरीके लिये बाहर निकली तो राजा गर्दभिल्लकी उस पर दृष्टि पड़ी और वह उसके लावण्य पर मुग्ध हो गया एवं कामान्ध हो राजपुरुषों द्वारा उसे पकड़वाकर अन्तः पुरमें डाल दिया । ५ देखो - श्री मेरुतुंगाचार्यविरचित स्थविरावलि अथवा विचारश्रेणीकी निम्न गाथायेंजं स्यणि कालगओ अरिहा तित्थंकरो महावीरो । तं स्यणिमवंतिवई अहिसितो पालो राया ॥ सही पालगरनो पणवन्नसयं तु होइ नन्दागं । अठ्ठयं मुरियागं तीसश्चिय प्रसमित्तस्स || बलमित्त - भाणुमित्ताण सठ्ठि वरिसाणि चत नहवहणे । तह गद्दभिरज्जं तेरस वासे सगस्स चउ ॥ ६ " तदनु गर्दभिस्यैव सुतेन विक्रमादित्येन राज्ञोजयिन्याराज्यं ग्राप्य सुवर्णपुरुषसिद्धियला पृथिवीमनृणां कुर्वता विक्रमसंवत्सरः प्रवर्तितः । " For Private And Personal Use Only - - ( स्थविरावली अथवा विचारश्रेणी ) ७ ये कालकसूरि द्वितीय हैं, इनसे प्रथम कालकसूरि ई. स. पूर्व १५१ में होचुके थे ।
SR No.521597
Book TitleJain_Satyaprakash 1944 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1944
Total Pages244
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size120 MB
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