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વિક્રમ-વિશેષાંક] સંવપ્રવર્તક વિક્રમાદિત્ય ઔર જેનધર્મ [ ૧૬૯ है । परन्तु जैन प्राचीन साहित्य ग्रन्थोंसे यह भलीभांती उपलब्ध होता है कि गर्दभिल्लवंशी शकारि विकमादित्य ही संवत्प्रवर्तक राजा थे ।
अधिकांश इतिहासज्ञोंका मन्तय तो यह था कि विक्रमसंवत्प्रवर्तक विक्रमादित्य ई. स. पूर्व ५७ में नहीं बल्कि उससे बहुत पीछे ५ वी ६ वी शताद्विमें हुआ था । परन्तु जैन तथा वैदिक साहित्यके आधार पर इस बातके प्रबल प्रमाण मिले हैं जिससे अब ऐतिहासिक विद्वान् महावीरसंवत् ४७० अथवा ईस्वीसन् पूर्व ५७ में विक्रमसंवत्प्रवर्तक विक्रमादित्यका अस्तित्व एवं विक्रमसंवत्का प्रारम्भ मानते हैं।
___ ऐतिहासिकोकी यह मान्यता है कि विक्रमादित्य नामक कोई व्यक्ति राजा नहीं हुआ, वास्तवमें यह एक उपाधि थी, जिसे प्रजाने राजाके विक्रम-पराक्रमको देखकर दो यी । विक्रमादित्यका तात्पर्य था-विक्रम+आदित्य-पराक्रमका सूर्य अथवा पराक्रममें सूर्य समान । उस समय यह उपाधि इतनी प्रिय और एषणीय हो चुकी थी कि हरएक राजा अपने नामके साथ इस उपाधिको लगालेने में गौरव समझता था और लगालेता था । संवत्प्रवर्तक विक्रमादित्यके बाद यह एक प्रथा सी बनगई थी,और इसी कारण इस उपाधिके धारक अनेक राजाओंके नाम इतिहासोंमें उपलब्ध होते हैं एवं इसीसे विक्रमादित्यका इतिहास भ्रमात्मक सा होगया है। विक्रमादित्य के माता-पिता, जन्मस्थान, बाल्यकाल, तथा जीवनसम्बन्धी अन्य सभी बातों का क्रमबद्ध इतिहास नहीं मिलता फिर भी जो बिखरी हुई सामग्री उपलब्ध होती है, उससे विक्रमादित्य के इतिहास पर अच्छा प्रकाश पड़ता है।
विक्रमादित्य क्षत्रियोंकी किस शाखामें उत्पन्न हुए इस बातका ठीक ठीक पता नहीं लगता। कर्नल टोडने इन्हें तोमर बताया है, पर राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द इन्हें परमारवंशी कहते हैं, मार्शमन् आदिने इन्हें आन्ध्रवंशी भी लिखा है पर इनमें से पक्का प्रमाण किसी बातका भी नहीं मिलता।'
जैन साहित्य और इतिहास-ग्रन्थोंमें विक्रमादित्यको गर्दभिल्लवंशी एवं गर्दभिल्छ राजाका आत्मज बतलाया है। इसकी पूर्व परम्परा एवं राजत्वकालगणनाका क्रम इस प्रकार माना है।
भगवान महावीरके निर्वाणको रात्रिको उज्जयिनीके राजा चण्डप्रद्योतकी मृत्यु हुई और उसके पुत्र पालकका राज्याभिषेक हुआ। इसके बाद पालक ६० वर्ष, नन्दोंके १५५, मौौके १०८, पुष्यमित्रके ३०, बलमित्र-भानुमित्रके ६०, नभोवाहनके ४०, गर्दभिल्लके
४ प्राचीन भारत–हरिमंगल मिश्र एम. ए. (पृष्ठ २३४)।
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