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श्री रेन सत्य in [उभा १००-१-२ अब यह उत्तर सर्वथा अप्रमाणिक ठहरता है, क्योंकि सं. ६००से पहेलेके कई लेख मिल गये हैं जिनमें इसकी अब्दसंख्याका निर्देश किया गया है।
किसीने कुषाण जातीय राजा कनिष्कको विक्रमसंवतका प्रवर्तक ठहराया, पर सर जॉन मार्शलने यह सिद्ध करके कि कनिष्कका विक्रमकी प्रथम शताब्दी में होना असंभव है, इस कल्पनाका भी निराकरण कर दिया। स्वयं मार्शल महोदयने विदेशी "अयस" (Azes) को संवत्प्रवर्तक बतलाया । यद्यपि उसका राज्यकाल विक्रमसंवत्के प्रारम्भमें ठहरता है, परंतु अयसके संवतका प्रचार गान्धार प्रदेश तक सीमित था और वहां थोड़े समयके बादबंद हो गया। इसके अतिरिक्त उज्जैनसे गान्धार बहुत दूर है। उज्जैनवाले इतने दूरके संवत्को बिना किसी प्रबल हेतुके कब अपनाने वाले थे।
प्राचीन लेखों और ग्रन्थोंसे पता लगता है कि
(१) विक्रमसंवत् प्राचीन कालमें राजपूतानाके पूर्वी भागमें, विशेष कर मालवाके समीपवर्ती प्रदेशमें, प्रचलित था ।
(२) अबतक इसका प्राचीनतम लेख सं. ४९३ का है। एक लेख सं. ४२८ का भी है, पर उसके अक्षर संदिग्ध हैं।
(३) प्राचीन लेखोंमें इसका नाम विक्रमसंवत् नहीं, प्रत्युत “ मालवकाल " है। सं. ८९८ के एक लेख में इसे "विक्रमकाल" और सं. १०५० के लेखमें "विक्रमसंवत्" कहा है। सं. १२५० के पीछे के लेखोंसें इसका विक्रमादित्यके साथ संबन्ध निर्दिष्ट किया जाने लगा।
इन लेखांसे इस संवत का मालवदेशान्तर्गत उन्नयिनीसे संबन्ध जोड़ना तो युक्तियुक्त है, परंतु विक्रमादित्यके साथ संबन्ध बतलानेवाला कोई प्राचीन और पुष्ट प्रमाण नहि मिला था ।हर्षकी बात है कि विक्रमादित्य का उल्लेख हालकृत "गाथासप्तशती के एक पद्यमें पाया जाता है जिसमें विकमकी दानशीलताका निर्देश है।
संवाहणमुहरसतोसिएण देतेण तुह करे लक्खं ।
चलणेण विकमाइचचरिअं अणुसिक्खि तिस्सा ॥ ४६६ ॥ खण्डिता नयिका अपने पतिते करती है कि मेरो सोनिनके चरणने तेरी संवाहन ७. इंडियन ऐंटिकरी, पुस्तक २०, पृ. १२५-४२ तथा ३९७-४१४ ।
८. मासिक पत्रिका “ शान्ति, लाहोर, जून १९४३, पृ. ११-१३ पर प्रिन्सिपल लक्ष्मण स्वरूपका लेख ।
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