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विभ- विशेषांक ]
વિક્રમાદ્રિચકા સંવત્–પ્રવત ન
[ १६७ क्रिया सुखसे प्रसन्न होकर तेरे हाथमें लाख लगाकर अथवा तेरे हाथ में लाख रुपया देकर (प्राकृत - लक्ख= लाक्षा, लक्ष) विक्रमादित्य के आचरणको दोहराया है, क्योंकि वह भी चरणसंवाहन जैसी साधारण सेवासे तुष्ट होकर लाखोंका इनाम दे डालता था ।
हमारी समझमें यह पद्य उसी महाराज विक्रमादित्य का उल्लेख करता है जिसको दानशीलता, न्याय और पराक्रम अबतक सबकी जीभ पर चढ़े हुए हैं। गाथासप्तशतीका रचनाकाल विक्रमकी दूसरी या तीसरी शताब्दी माना जाता है, अतः इस उल्लिखित विक्रमादित्य के पहली शताब्दी में होनेमें कोई आपत्ति नहीं हो सकती। फिर महाराष्ट्री प्राकृत जो सप्तशती के पथों की भाषा है, उसका अधिकतर प्रवार महाराष्ट्र और मालवा में था, इस लिये संभव है कि इस पद्य में उज्जयिनी विक्रमादित्य का ही उल्लेख हो । रही यह शङ्का कि शायद इस विक्रमादित्य से भी पहले कोई और विक्रमादित्य हुआ हो । इसके उत्तर में यह कहना पर्याप्त होगा कि इस विक्रमादित्य से पूर्व भारत में कई बड़े २ प्रतापी राजा महाराजा हुए हैं, जैसे- उदयन, चण्डप्रद्योत, चन्द्रगुप्त, अशोक आदि । मगर इनमेंसे किसीका अपरनाम विक्रमादित्य हो, ऐसा उल्लेख नहीं मिलता ।
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पाश्चात्य ऐतिहासिकोंका पूर्वोक्त कल्प-विकल्प इस बात पर आश्रित था कि दो हज़ार साल पहले जो विक्रमसंवत्का आरम्भकाल माना जाता है, भारतवर्ष में किसी ऐसे प्रतापी और दानशील राजाके होनेका उल्लेख नहीं मिलता जैसा कि संवत्प्रवर्तक विक्रमादित्यकों ख्याल किया जाता है | गाथासप्तशती के पूर्वनिर्दिष्ट पयसे यह कल्पना रूपी गढ़ ठह जाता है । इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि दो हजार वर्ष पहले उज्जयिनी में विक्रमादित्य राजा थे जो अत्यन्त दानशील थे । इस उल्लेखने जैन कथनको पूर्णतया दृढ कर दिया है ।
६, नेहरू स्ट्रीट, कृष्णनगर, लाहौर माघ, कृष्णा सप्तमी. सं. २०००
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તૈયાર છે
'श्री जैन सत्य प्राश'नी श्रील, थोथा, पांयभा, सातभा અને આઠમા વર્ષની છૂટી તથા બાંધેલી ફાઇલેા તૈયાર છે. મૂલ્યછૂટી દરેકના બે રૂપિયા; બાંધેલી દરેકના અઢી રૂપિયા.
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વર્ષ પહેલાંના છૂટ આઠ વર્ષ બીજાનાં છૂટક દસ અકા વર્ષ છઠ્ઠાનાં છૂટક દસ અ`કી
મૂલ્ય ૧પ-૦ भूल्य १-१०-० भूल्य १-१०-०
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भजी शहुशे,
શ્રી જૈવલ સત્યપ્રકાશક સમિતિ केशिंगसाईनी वाडी, घीमंग, सभहावाह