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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विक्रमादित्यका संवत्-प्रवर्तन लेखकः-डॉ. बनारसीदासजी जैन, एम.ए., पीएच. डी. [प्रोफेसर, युनिवासटी ओरियंटल कालिज] भारतवर्षमें जितने संवत् चलते हैं, या चल चुके हैं, उन सबमें विक्रमसंवत् अधिक प्रसिद्ध है । इसीका प्रचार अधिक प्राचीन और विस्तृत है । भारतीय परंपराके अनुसार इस संवत्का प्रवर्तन आजसे दो हजार बरस पहले उज्जयिनीके प्रख्यात महाराज विक्रमादित्यने किया, जब उन्होंने अपनी प्रजाको विदेशी शासक शकोंके पंजेसे छुड़ाया और उसे ऋणमुक्त किया था। शकोंको परास्त करने के कारण विक्रमादित्यका एक विरुद "शकारि" भी प्रसिद्ध है। यद्यपि संवत-विषयक यह कथन केवल जैन साहित्यमें मिलता है, परंतु अब यह सभी संप्रदायोंमें मान्य हो गया है। विक्रमादित्यने अपने जीवनमें यह संवत् कब चलाया, इस विषयमें तीन मत पाए जाते हैं-एकके अनुसार विक्रमादित्यने अपने राज्याभिषेकके समय यह संवत् चलाया; दूसरेके अनुसार, जब उसने प्रजाको ऋणमुक्त किया; और तीसरेके अनुसार उसकी मृत्यु पर यह संवत् चला। जबसे पाश्चात्य विद्वानोंने भारतवर्षके इतिहास पर विचार करना प्रारम्भ किया, तबसे विक्रमसंवत-प्रवर्तन संबन्धी उपर्युक्त धारणामें संदेह होने लगे। उन्होंने कहा कि प्रथम तो विक्रम संबन्धी जो सामग्री भारतीय साहित्यमें मिलती है वह प्रायः कथारूप है। उसमें १ (क) शकानां वंशमुच्छेद्य कालेन कियतापि हि । राजा श्रीविक्रमादित्यः सार्वभौमोपमोऽभवत् ॥ ८० ॥ स चोन्नतमहासिद्धिः सौवर्णपुरुषोदयात् । मेदिनीमनृणां कृत्वाचीकरद् वत्सरं निजम् ॥ ८१॥ (प्रभावकचरिते कालकसूरिचरित ) (ख) इतः श्रीविक्रमादित्यः शास्त्यवन्तीं नराधिपः । भनृणां पृथिवीं कुर्वन् प्रवर्तयति वत्सरम् ॥ ७१ ।। (प्रभावकचरिते जीवसूरिचरित) (ग) कलौ भवानेवोदार इति प्रतिबोधितः परलोकमाए । ततः प्रभृति तस्य विक्रमादित्यस्य जगत्ययमधुनापि संवत्सरः प्रवर्तते ॥ (प्रबन्धचिन्तामणौ विक्रमप्रबन्ध.) (क) देखिये नोट १ (ग) (ख) अभिषेक और पृथिवी-ऋण-मोचन एक ही समय हुए हों, अथवा उनमें अधिक भन्तर न हो। For Private And Personal Use Only
SR No.521597
Book TitleJain_Satyaprakash 1944 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1944
Total Pages244
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size120 MB
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