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શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [ भांड १००-१-२ राजः), उत्तुंग चोटियों वाले पर्वत झुकते हुए जान पड़ते हैं, द्वीपांतरोंसे ऐसा स्वप्न आता है, मानो वहां हमारे यष्टाका यूप पहले से ही निखात हो। अपने यशकी अमर प्रशस्तिसे परिचित होना राष्ट्रका जन्मसिद्ध अधिकार है। वही हमको कर्म और ज्ञानका संदेश देकर जीवनक्षेत्रमें आगे बढाता है। अतीतको वर्तमानमें समझ कर भविष्यका निर्माण ही इतिहासका फल है। ___यह संवत्सर विक्रमके दो सहस्र वर्षों की समाप्ति पर आया है। संसारके प्रमुख संवतोमें विक्रमसंवत् सबसे प्राचीन है। हमारे उत्थान और पतनका काल चक्र विक्रमसंवत्के साथ गुंथा हुआ है । संवत् देश या जनता के लिए कोई साधारण वस्तु नहीं है। वह इतिहासको : घटनाओंको मेरुदंडको तरह सदा-सदाके लिए धारण किए रहता है। संवत्की शक्ति और हमारी क्रियाशक्ति एक दूसरे में प्रतिबिंबित होती हैं। जिस युगमें देशकी क्षत्रशक्ति और ब्रह्मशक्तिने नया पराक्रम धारण किया, उस युगमें संवत्सरके अंक भी नये तेजके साथ चमक उठे । यही तो गुप्त-युगका सोने जैसा चमकीला तेज है जिसका ध्यान आते ही अब भी हमारा अंतःकरण शुद्ध ज्योतिसे घुल जाता है। ईश्वर करे भारतीय संवत्सर नवीन विक्रमसे युक्त होकर सदा विजयी हो। हमारा संवत् हमारे राजर्षियोंके
और हमारी महाप्रजाओं के विक्रमसे आयुष्मान् बनता है । हम आयु पर्यन्त जीवित रहते है, पर संवत् अमर है। हमारे पराक्रमके तेजसे संवत्सर तेजस्वी बनता है। क्या संवत्सर राष्ट्रमें साधारण वस्तु है ? वह राष्ट्र के समुदित विक्रमका एक ऐसा प्रतीक है जो एक क्षगके लिये भी हमारा साथ नहीं छोडता। राष्ट्रका विक्रमशील साका संवत्सरको अजस्र साक्षीसे हमें दृष्टिगोचर होता रहता है। पुरातन कालसे अद्यावधि राष्ट्रके जो 'पंच मानव' हैं, वे अजर और अमर हैं। वे ही हमारी महाप्रजाएं हैं। उनकी सत्ता अखंड है। उनकी सत्ताका मेरुदण्ड उनका संवत्सर है । प्रजाएं जब विक्रमशील होती हैं, संवत्सरके वे अंक शक्तिसे भर जाते हैं । प्रजाएं निश्चेष्ट होती हैं, संवत्सर भी म्लान हो जाता है।
विक्रम-जयन्ती उस महान् पराक्रमको जिसे हमारे पूर्वजोंने किया और जिसके द्वारा हम मानवसे देन बने, स्मरण करनेका एक स्वर्ण अवसर है। अपने पराक्रमके स्वरोंकी दिगन्तव्यापी गूंजको, जो आज तक महाकाशमें पूरित है यदि हमारे बहिरे बने हुए कान फिरसे सुनने लगें, तो मानों हमारे महान् विक्रमका आदित्य फिर प्राचीमें प्रकाशित होने लगा। अपने विक्रमादित्यके यशको पुनः राष्ट्रकी स्मृतिमें हरा-भरा रखना हम सबका आवश्यक जीवन-धर्म है। हमें चाहिए कि अपने चिर संवत्सरके इस पुण्य पर्वमें विक्रमकी महिमासे सबका प्रिय करने वाले राजर्षिका संमान करें। महाकवि कालिदासने उचित ही कहा है
अत्र विक्रममहिम्ना प्रियकारिणं संभावयामो राजर्षिम् ।
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