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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विभ-विशेषां] હમારા વિક્રમ [२०८ उठ कर पर्वतोंको पार करके, सागरके पार तक अपना प्रभाव पहुँचाती थीं। महाकवि कालिदासने, जो अपने स्वर्णयुगके सर्वोत्तम प्रतिनिधि थे, उस कालकी विक्रम-प्रधान भावनाको कितने सुंदर शब्दों में प्रगट किया है आरूढमद्रीन उदधीन् वितीर्ण भुजंगमानां वसतिं प्रविष्टम् । ऊध्वं गतं यस्य न चानुबंधि यशः परिच्छेत्तुमियत्तयालम् ॥ (रघुवंश ६७७) राष्ट्रका वह यश पर्वतों पर चढ़कर उनके उस पार तक फैल गया। महासागरोंको सीमाओंको पार करता हुआ द्वीपांतरोंमें व्याप्त हुआ। पाताल तक उसका प्रभाव पहुँचा । स्वर्गके जो दिव्य आदर्श हैं, उनके साथ भी उस यशका संपर्क हुआ। इस प्रकार देश और कालमें सब ओर व्याप्त होकर ऐसा जान पड़ता था कि वह यश मानों अब मापसे बाहर हो गया है। कविकी कल्पना ठीक है। गुप्तांके स्वर्ग युगमें देशको संस्कृतिने जो महान् विक्रम किया. 'चरैवेति' के संचरणशील रथचक्रोंके साथ संयुक्त हो कर नये देश और नये द्वीपान्तरोंको अपने पाद-चारसे परिचित किया, उसकी पूरी कथा उस संस्कृतिके उत्तराधिकारि उस उच्च ब्रह्मदायके दायाद अभी तक समझ नहीं पाये हैं। उस कालमें विक्रमके प्रतापसे मनुष्यका मान कितना ऊँचा उठ गया था, उसमें कितने नये भावोंकी हलचक एक साथ ही उठ खड़ी हुई, उसका कल्पनाशील चिंतन कितना दृढ़ बन गया था उसका पूरा परिचय प्राप्त करने के लिए हमको आज घोर परिश्रम करना पड़ेगा। परन्तु सबसे पहली आवश्यकता एक नये जागरणकी है। विना जागरूताके युग-युगसे बधिर बने हुए कान नया संदेश सुननेमें सफल न हो सकेंगे। ऋग्वेद में कहा हैऋतस्य श्लोको बधिरा ततर्द कर्णा बुधानः शुचमान आयोः । (ऋ० ४।२३८) अर्थात् सर्वत्र व्याप्त ऋतका जब मंगल-गान आरंभ होता है, तब उसके श्लोकसे बहिर कान फिर सुनने (की शक्ति प्राप्त करने) लगते हैं, बहुत कालकी मूर्छा दूर कर नई चेतना आने लगती है । वह यशोगान खूब चमकीला और बुद्धिपूर्वक, समझबूझ कर किया गया होना चाहिए । जीवित व्यक्तिके लिए वह अवश्य नये जीवन और नये आयुबलका संदेश लेकर आता है। जिस युगमें 'विक्रम' के स्वर संबके कानोंमें पहुँचने लगते हैं, उस युगमें जनताकी शक्ति और साहसमें मानों बहिया आ जाती है, विकराल तरंगोंसे भरा हुआ महार्णव ऐसा जान पड़ता है मानों उसके जलका किसीने आचमन लिया हो (निःशेषपीतोज्झितसिंधु For Private And Personal Use Only
SR No.521597
Book TitleJain_Satyaprakash 1944 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1944
Total Pages244
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size120 MB
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