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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विद्रुभ- विशेषांक ] ‘કથાસરિત્સાગર’ મે’વિક્રમાદિત્ય [ २०७ कि देव ! अब असुर और राक्षसोंने म्लेच्छ रूप धारण कर लिया है। वे पृथिवीको तंग कर रहे हैं । यज्ञादिमें विघ्न डालते हैं और हमारा भाग छीन कर ले जाते हैं। इससे हम सब भूखे रहते हैं । उनके अत्याचारोंने संसारका नाक में दम कर दिया है । आप इनके नाशका कोई उपाय बतलाइये । यह सुनकर शिवने उत्तर दिया- तुम लोग आरामसे अपने २ स्थानको लौट जाओ और निश्चिन्त रहो । मैं इसका सब प्रबन्ध कर दूंगा । इन्द्रके चले जाने पर शिवने अपने गण माल्यवान् को बुलाकर आदेश दिया कि उज्जयिनी में जाकर तुम राजा महेन्द्रादित्य के घर पुत्ररूपसे उत्पन्न हो जाओ। वहां वेताल, राक्षस और म्लेच्छों का संहार करो और मानवजीवन भोग कर फिर यहां आजाना । अब शिवने महेन्द्रादित्यको स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि तेरे घरमें एक ऐसा बालक उत्पन्न होगा जो बड़ा प्रतापी और पराक्रमी होगा । वह वेताल, यक्ष, राक्षस, विद्याधर, म्लेच्छ आदि सबको परास्त करेगा । इसी कारण उसका नाम "विक्रमादित्य" प्रसिद्ध होगा, परंतु अपने शत्रुओंके प्रति घोर चैर रखने से "विक्रमशील" भी कहलावेगा । जब प्रातः काल महेन्द्रादित्यका दरबार लगा, तो मन्त्रियोंने आकर बतलाया कि रात्रिमें हमें शिवने दर्शन दिया और कहा कि तुम्हारे पुत्र होगा । इतने में अन्तःपुरसे एक दास आई और राजाके सामने एक फल रख कर बोली कि शिवने स्वप्न में यह फल रानीको दिया है । अब तो राजाको पूर्ण विश्वास हो गया कि सचमुच शिवने पुत्र प्रदान किया है । समय पाकर रानीने पुत्रको जन्म दिया । नगरमें आनन्द मङ्गल होने लगा । राजाने बालक का नाम शिवके आदेशानुसार विक्रमादित्य और विक्रमशील रखा। इधर मन्त्री सुमतिके घर महामति, द्वारपाल वनायुधके घर भद्रायुध और पुरोहित महीधर के घर श्रीवर नामके लड़के पैदा हुए। विक्रमादित्य इन मन्त्रिपुत्रों के साथ खेलता हुआ बढ़ने लगा । उचित समय पर उसका यज्ञोपवीत हुआ और वह विद्याभ्यास करने लगा। उसने अस्त्र शस्त्र तथा शास्त्रकी सब विद्यायें सीख लीं। यह देख कर प्रजा अति प्रसन्न हुई । राजाने रूपवती युवतियोंके साथ इसका विवाह कर दिया । जब महेन्द्रादित्यने देखा कि विक्रमादित्य सब प्रकारसे योग्य हो गया है, तो उसने उसे राज्यसिंहासन पर बिठा दिया और आप संन्यास लेकर भगवद्भक्तिमें लग गया । विक्रमादित्य न्याय पूर्वक राज करने लगा। उसने दुष्टोंका दमन करके प्रजाको सुखी बनाया और उसका यश सारे संसार में फैल गया । एक दिन विक्रमादित्य सभामें बैठा था कि द्वारपाल भद्रायुधने सूचना दी - " आपने सेनापति विक्रमशक्तिको विजयार्थ दक्षिणमें मेजा था, उसका दूत अनङ्गदेव आपके दर्शन करना चाहता है " । राजाने उसे अन्दर आनेकी आज्ञा दी। जब वह आया तो उससे सेनाका हाल पूछा । इस पर अनङ्गदेवने बतलाया कि महाराज ! विक्रमशक्तिको दक्षिण, मध्यदेश, पूर्वी For Private And Personal Use Only
SR No.521597
Book TitleJain_Satyaprakash 1944 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1944
Total Pages244
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size120 MB
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