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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨૦૬ શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [ भां४ १००-१-२ कर दूंगा । किसी प्रकार शर्ववर्माने राजाको छः मास में व्याकरण पढ़ा दिया । अब गुणाढ्य मौन धारण करके विन्ध्य पर्वत पर रहने लगा । यहां उसने पिशाच भाषा सीखी । जब वह फिरते २ काणभूति से मिला तो उससे बृहत्कथा सुन कर उसने उसे अपने लहू के साथ लिख लिया । अब यह कथा उसने राजा सातवाहनके पास भेजी, परंतु राजाने पिशाच - भाषा - मयी रचनाको निकृष्ट समझ कर उसे स्वीकार न किया । हताश हो कर गुणाढ्य इस कथाको पशुपक्षियोंको सुनाने लगा और जो भाग वह सुना देता, उसे आगमें डाल देता । दैवयोगसे राजा सातवाहन बीमार पड़ गया । वैद्यों और ज्योतिषियोंने कहा कि रोगका उपाय उस ब्राह्मणके पास है जो जंगलमें बैठा पशुपक्षियोंको कथा सुना रहा है । राजा वहां आया और गुणाढ्यकों देखकर हैरान हुआ । अब उसने कथाका जितना भाग बचा था उसे सुना । इस भागमें केवल नरवाहनदत्तका वर्णन था । सातवाहन इसे लेकर नगर में आगया और इस विचित्र घटनाको कथापीठिका रूपसे इस भागमें जोड़ दिया । इत प्रकार सातवाहनने बृहत्कथाके अन्तिम भागकी रक्षा की जिस परसे सोमदेवने कथासरित्सागर बनाया । कथासरित्सागर में नरवाहनदत्तका चरित वर्णित है जो कौशाम्बीके प्रसिद्ध राजा उदयनका पुत्र था | उदयनने पहले उज्जयिनीके राजा चण्डमहासेनकी पुत्री वासवदत्तासे और फिर मगधकी राजपुत्री पद्मावती से विवाह किया । वासवदत्ताने नरवाहनदत्तको जन्म दिया । इसने विद्याधरोंको जीत कर उन पर अपना आधिपत्य स्थापित किया । शेष कथा में नरवाहनदत्त के देशाटन और विवाहोंका वर्णन है । इसकी पटरानी मदनमञ्चुकाको एक विद्याधर हर कर ले गया था । उसकी तलाशमें फिरता २ वह कण्व ऋषिके आश्रम में पहुंच गया । ऋषिने उसे उदास देख कर कहा कि राजन् ! तुम अपनी प्रिया के विरह में दुःखी मत हो । दैवयोग से इस संसार में बड़ी अद्भुत घटनायें हो जाती हैं। इस कथन की पुष्टिमें ऋषि विक्रमशीलकी कथा सुनाई और कहा कि हे नरवाहनदत्त ! विक्रमशीलकी भांति तुम भी अपनी प्रिया से मिल जाओगे | कथासरित्सागर की यल अन्तिम कथा अठारहवें लम्बकमें पाई जाती है। विक्रमशील अर्थात् विक्रमादित्य I I अवन्तीदेशमें उज्जयिनी बड़ा प्रसिद्ध नगर है ! यहां महेन्द्रादित्य नामक राजा राज करता था । यह बड़ा शूरवीर, पराक्रमी और दानी था। सौम्यदर्शना इसकी रानी थी, सुमति मन्त्री, और वज्रायुध द्वारपाल था । इसके पुत्र नहीं था, और पुत्रप्राप्तिके लिये सदा ईश्वरसे प्रार्थना किया करता । एक बार शिव और पार्वती कैलाश पर्वत पर आनन्दपूर्वक विश्राम कर रहे थे कि इन्द्र आकर उनके सामने खड़ा हो गया । शिवने इन्द्रके आनेका कारण पूछा । वह बोला २ उदयन - यह भारतवर्षका बड़ा प्रसिद्ध राजा हो चुका है । इसका उल्लेख जैन और बौद्ध साहित्योंमें मिलता है । जैसे विवागसुरा, अध्ययन ४; विवाहपष्यसि १२, २. देवप्रभकृत मृगावतीचरित्र; उदयनवत्सराजपरिपृच्छा | ३ क्षेमेन्द्रकी " वृहत्कथामखरी " में यह दसवां लम्बक है । For Private And Personal Use Only
SR No.521597
Book TitleJain_Satyaprakash 1944 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1944
Total Pages244
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size120 MB
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