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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'कथासरित्सागर' में विक्रमादित्य लेखकः-प्रो. मूलराजजी जैन, एम.,ए., एल-एल. बी. [भूतपूर्व प्रिन्सीपाल-आत्मानन्द जैन कालिज संस्कृत साहित्यमें 'कथासरित्सागर' बड़ा प्रसिद्ध और महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसे काश्मीरके कवि सोमदेवने सं. ११३० के लगभग बनाया था। यह अठारह लम्बकोंमें विभक्त है। प्रथम लम्बकका नाम "कथा-पीठिका" है जिसमें बतलाया है कि इसका आधार गुणा. ढयकी "बृहत्कथा" है, जो भूतभाषा या पैशाची प्राकृतमें रची गई थी। इसमें बृहत्कथाकी रचनाके विषयमें एक विचित्र घटनाका उल्लेख किया गया है। ___ एक बार शिवजी और पार्वती कैलाश पर्वत पर बैठे थे । पार्वतीने कहा कि समय बितानेके लिये कोई कथा सुनाइये । इस पर शिवजीने अपने जीवनका एक प्रसंग सुनाया। पार्वतीको यह पसंद नहीं आया । फिर शिवने कहा कि अब ऐसी कथा सुनाता हूं जो तुमने पहले कभी न सुनी हो । यह कथा सुनकर पार्वती बहुत प्रसन्न हुई। शिवका एक गण था पुष्पदन्त । उसने चोरीसे यह कथा सुन ली और अपनी भार्यासे जा सुनाई। उसने पार्वतीको सुना दी। इस पर पार्वतो बहुत क्रुद्ध हुई और पुष्पदन्त तथा माल्यवान् , जिसने पुष्पदन्तका अपराध क्षमा करानेका प्रयत्न किया था, दोनोंको शाप दिया कि तुम मर्त्य-लोकमें पैदा हो। इस शापसे पुष्पदन्तकी मुक्ति तब होगी जब वह कौशाम्बी नगरीमें वररुचि (कात्यायन) के रूपमें जन्म लेकर काणभूतिको बृहत्कथा सुना देगा । काणभूति एक यक्ष था जो विन्ध्याचलमें रहता था। माल्यवान्का शाप तब छूटेगा जब वह सुप्रतिष्ठित नगरमें गुणाढय बन कर काणभूतिसे बृहत्कथा सुन लेगा। समय पाकर पुष्पदन्त अर्थात् वररुचि-कात्यायन काणभूतिको मिला और उसे बृहत्कथा सुना कर शापमुक्त हो गया । __ अब माल्यवान्का जीव गुणाढ्यपनसे सुप्रतिष्ठित (प्रतिष्ठान) नगरके राजा सातवाहनका' मन्त्री बना । एक बार राजाने व्याकरण संबन्धी कुछ भूल की । इस पर गुणाढ्यने राजासे कहा कि मैं आपको छः बरसमें व्याकरण सिखा सकता हूं। यह सुन दूसरे मन्त्री शर्ववर्माने कहा कि मैं केवल छः मासमें सिखा सकता हूं, और यदि ऐसा न कर सकं तो गुणाढ्यके जूते मैं अपने सिर पर रखलूंगा । गुणाढ्य समझता था कि छः मासमें व्याकरण सिखाना सर्वथा असंभव है, इस लिये उसने यह प्रतिज्ञा की कि यदि शर्ववर्मा छः मासमें व्याकरण सिखा दे, तो मैं सर्वदाके लिये संस्कृत, प्राकृत और अपनी निजी भाषाका परित्याग १ सातवाहन नामके कई राजा हुए। एक काश्मीरमें और आन्ध्रभृत्यवंशी दक्षिणमें। दक्षिण वाले पहले प्राकृतके पक्षपाती थे, लेकिन पीछेसे संस्कृतकी ओर झुक गये । एक सातवाहन (हाल) ने प्राकृत पद्यों "गाथासप्तशती" नामक संग्रहकी रचना की। प्रस्तुत सातवाहनके प्राकृतके प्रति द्वेष होनेसे प्रतीत होता है कि यह सप्तशतीके संग्रहीतासे पीछे हुआ होगा । For Private And Personal Use Only
SR No.521597
Book TitleJain_Satyaprakash 1944 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1944
Total Pages244
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size120 MB
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