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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०४] श्रीन सत्य प्र भांश १००-१-२ चतुर्थी पयुर्षणा करनेवाले आचार्य भी प्रथम कालक थे क्योंकि यह घटना बलमित्र-भानुमित्रके राज्यमें घटी थी । हमारे इस पूर्वोक्त कथनमें चतुर्थ कालकके सम्बन्धकी एक प्राकरणिक गाथा विरोध डालती है-उसमें लिखा है वीरसंवत्के ९९३ वर्षमें कालकसूरिने चतुर्थीको पयूषणा की। अब यह देखना चाहिये यह गाथा कहां तक ठोक है। निर्वाणका ९९३ वों संवत् विक्रमका ५२३ वां और ईसवी का ४६६ वां वर्ष होगा। इस चतुर्थीवाली घटनाके समय प्रतिष्ठानमें सातवाहन वंशका राज्य था । यह बात इतिहाससे सिद्ध हो चुकी है कि ईसाकी तीसरी शताब्दीमें ही आंध्रराज्य (सातवाहन वंश) का अंत हो चुका था। अतः ई. सन् ४६६ में सातवाहन वंशका कोई राजा नहीं था, और चतुर्थी पर्युषणाकी घटना घटी है सातवाहनके वंशके राज्यमें । इससे सिद्ध होता है कि गाथोक्त समय गलत है। इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि चतुर्थ कालकने चतुर्थीको पर्यषणा नहीं की-किसी अन्य कालकने ही की है। यही बात मुनि कल्याणविजयजीने मानी है। इन सब बातोंसे निचोड यह निकलता है कि बलमित्र-भानुमित्र गर्दभिल्लोच्छेदक द्वितीय कालकके समय विद्यमान नहीं थे, और उनका सम्बन्ध प्रथम कालकसे ही है और उन्हींके राज्यकालमें नि. सं. ३५४ से ३७६ के बीच चतुर्थीको पर्यषण करनेकी घटना प्रथम कालक द्वारा ही घटी है। हमारे ख्यालसे द्वितीय कालककी घटनाओंका समय इस प्रकार हो सकता है। पहली घटना-नि. सं. ४५३ में कालकने सूरिपद प्राप्त किया और ४५३-४६६ के बीचमें वे गर्दभिल्ल के समय उज्जैन गये और नि. सं. ४६६ में गर्दभिल्लका उन्मूलन हुआ। तीसरी घटना नि. सं. ४६६ के बाद घटी होगी। पांचवी और छठी घटनाका काल मुनिजीके अनुसार ठीक ही प्रतीत होता है। उपसंहार इस प्रकार हम देखते हैं कि कालककथा केवल कथा ही नहीं है अपितु विक्रमके पूर्वका ठोस इतिहास है । इसमें भारतमें शकोंके आगमनका तो इतिहास है ही, किन्तु उनके पतनके इतिहासका भी दिग्दर्शन हो जाता है। जैसा कि हम पहले लिख चुके हैं कि यह निबन्ध प्रचलित जैन कालगणनापद्धतिके नीव पर खडा किया गया है और उसीके आधारभूत हमको मुनिश्री कल्याणविजयजीके मतसे भिन्नता रखनी पडी है, क्योंकि हमें प्रचलित कालगणनाको गलत माननेका कोई खास कारण नहीं मालूम देता । विक्रम और कालकाचार्यकथाका सम्बन्ध बताते हुए हमने विक्रमके काल और अस्तित्वको भी विभिन्न विद्वानोंके मतों एवं प्रमाणोंसे एवं जहां तक तर्क पहुँचा है उससे साबित करनेकी चेष्टा की है। - इस निबन्धकी बुनियाद करनेके लिए हमें बहुतसे ग्रन्थोंकी सहायता लेनी पड़ी है अतः उन ग्रन्थोंके कर्ताओंके हम आभारी हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.521597
Book TitleJain_Satyaprakash 1944 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1944
Total Pages244
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size120 MB
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