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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - વિક્રમ–વિશેષાંક ] કાલકાચાર્ય ઔર વિક્રમ [२०३ हमने निबन्धके पूर्वमें बलमित्र-भानुमित्रका सत्ताकाल वीर नि. सं. ३५४ से ४१३ माना है और प्रचलित जैन कालगणनापद्धतिके अनुसार यही सिद्ध होता है । और बलमित्रभानुमित्रका सम्बन्ध प्रथम कालकसे बताया था । 'कथावली' एवं अन्य कालक कथाओं में गर्दभिल्लोच्छेदक घटनाके समय बलमित्र-भानुमित्रके होनेकी बात है। अगर बलमित्र-भानुमित्रको द्वितीय कालकके समयमें होना मानले तो प्रचलित कालगणनानुसार उनका समय ठीक नहीं बैठता । किन्तु प्रचलित जैन कालगणनाको गलत माननेका हमें कोई कारण नहीं दोखता । इससे संभव है कि बलमित्र-भानुमित्र द्वितीय कालकके जमाने में विद्यमान न थे अतः 'कथावली' आदिका उक्त कथन गलत है । या यह संभव हो सकता है कि बलमित्रभानुमित्र नामक दो राजा विभिन्न प्रथम और द्वितीय कालकके जमानेमें हुए हों । मुनि कल्याणविजयजी लिखते हैं-" बलमित्र-भानुमित्र आर्य कालकके भानजे थे यह बात सुप्रसिद्ध है, अत एव कालकके समयमें इनका अस्तित्व मानना भी अनिवार्य है।" किन्तु हम इस तरह से मानने को तैयार नहीं हैं। यह भी संभव हो सकता है कि बलमित्र-भानुमित्र प्रथम कालकके भानजे हो । प्र. का. गणनानुसार बलमित्र-भानुमित्रका समय प्रथम कालकके ही साथ मेल खाता है। - मुनि कल्याणविजयजी कालगणनामें मौर्यके १०८ वर्षके बजाय १६० वर्षका राज्य उज्जैनमें होना मानते हैं और इसके आधार पर वे बलमित्र-भानुमित्रका समय नि.सं. ४१४ से ४७३ तकका मानते हैं, और यही समय मानकर वे द्वितीय कालक और बलमित्र और भानुमित्रके साथ सम्बन्ध होना बताते हैं । अगर हम मुनिजीके अनुसार बलमित्र-भानुमित्रका समय ठीक भी मानले और द्वितीय कालकके समय उनकी विद्यमानता मानले, तो हम देखते हैं कि बलमित्र-भानुमित्रके बादके राज्योंका इतिहास बदल जाता है। मुनिजीके अनुसार बलमित्र-भानुमित्रके बाद नहपानका राज्यकाल नि. सं. ४७३ से ५१३ तक (ई. पू. ५४ से १४) आता है जो असंगत प्रतीत होता है, क्योंकि नहपानका सत्ताकाल ई. पू. ८२ से ७७ भारतीय इतिहासकी रूपरेखा (पृ. ७६४) में माना है। और इससे न गर्दमिल्लका राज्यकाल ही ई. पू. ५७ साबित होता है और न शकोंका चार वर्षका राज्यकाल ही। अतः यह मानना पड़ेगा कि बलमित्र-भानुमित्र द्वितीय कालकके समय विद्यमान नहीं थे। और उनका सत्ताकाल प्रचलित कालगणनानुसार ही ठीक प्रतीत होता है और चतुर्थीको पयुर्षणा करनेवाले आचार्य प्रथम कालक ही थे, जब कि उज्जैनमें बलमित्र-भानुमित्रका राज्य था और प्रतिष्ठानमें सातवाहनके वंशजोंका । क्योंकि इस वंशकी नींव श्री जायसवालजीके मत अनुसार ई. पू. २१३-१०० में ही पड़ चुकी थी। इस तरहसे हमने बलमित्र-भानुमित्रका सामञ्जस्य प्रथम कालकसे बताया है और For Private And Personal Use Only
SR No.521597
Book TitleJain_Satyaprakash 1944 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1944
Total Pages244
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size120 MB
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