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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०२ 1 श्री रेन सत्य प्रअ [ भा १००-1-२ हरप्रसाद शास्त्री एवं डा. कोनो तो शुरूसे ही विक्रमकी वास्तविकताको मानते आये हैं। अब यह देखना चाहिये कि ई.पू. ५७ का विक्रमादित्य कौन था ? आजकलके इतिहासकार तो गौतमीपुत्र सातकर्णिको ही विक्रम हुआ मानते हैं और जायसवाल वगैरहका भी यही मत है। पुराणों में एक दूसरे शातकर्णिका नाम आता है जो सातवाहन वंशका था, जिसने ५६ वर्ष राज्य किया। इन दोनोंका समय लगभग एक ही है अतः गौतमीपुत्र शातकर्णि ही पुराणोंवाला दूसरा सातकणि था । जैन अनुश्रुतिके अनुसार विक्रमादित्यने ५५ वर्ष राज्य किया। अतः गौतमीपुत्र सातकाणिं ही विक्रमादित्य था। उज्जैन के विशेष चिह्न युक्त राजा श्री सातके दो सिक्के मालबासे मिले हैं, जिनका समय विन्सेंट स्मिथने ई.पू.लगभग ६०-७० माना था। सांचीके बड़े स्तूपके हदक्खिणी तोरण पर एक छोटासा लेख इस आशयका है "राजा श्री सातकर्णिके कारीगर वासिष्ठीपुत्र आनन्दका दान", इससे शिल्प विशारदोंने ई. पू. ७५ के लगभगका माना है। मुनि कल्याण विजयजी शुङ्गराजकुमार बलमित्र-भानुमित्रको द्वितीय गर्दभिल्लोच्छेदक कालकाचार्यके समकालीन मानते हैं। वे अपने 'आर्य कालक' लेख (द्विवेदी अभिनंदन ग्रन्थमें प्रकाशित) के पृ. १११ के फुटनोटमें आचार्य मेरुतुंगसूरिरचित 'विचारश्रेणी की स्थविरावली टीकाका आशय देते हुए लिखते हैं-"गर्दभिल्लने उज्जयिनीमें तेरह वर्ष तक राज्य किया। इसी बीच कालकाचार्यने सरस्वतीवाली घटनाके कारण गर्दभिल्लका उच्छेदन कर वहां शकोंको स्थापित किया । शकोंने वहां चार वर्ष तक राज्य किया। इस प्रकार सत्रह वर्ष हुए। उसके बाद गर्दभिल्लके पुत्र विक्रमादित्यने उज्जयिनीका राज्य प्राप्त किया और सुवर्ण-पुरुषको सिद्धि के बलसे पृथ्वीको उऋणकर विक्रमसंवत्सर चलाया।" इसके आगे वे अपना मत देते हुए लिखते हैं-"हमारे ख्यालन्ने यह गर्दभिल्ल-पुत्र विक्रमादित्य ही 'बलमित्र' है। संस्कृतमें 'बल' और 'विक्रम' तथा 'मित्र' और 'आदित्य' एकार्थक शब्द हैं, इसलिये 'बलमित्र' और 'विक्रमादित्य का अर्थ एक ही है। संभव है, बलमित्र ही उज्जयिनीके सिंहासन पर बैठनेके बाद 'विक्रमादित्य'के नामसे प्रख्यात हुआ हो, अथवा उस समय वह 'बलमित्र' और विकमादित्य दोनों नामोंसे प्रसिद्ध हो।" अगर हम दो बलमित्र-भानुमित्र हुए मानले पहिले--प्रश्रम कालकके जमाने में और दूसरे-द्वितीय कालकके जमानेमें और वे उस वक्त भरोचके ही राजा तो यह अच्छी तरह माना जा सकता है कि शकोंका उन्मूलन करनेवाला बलभित्र ही था जो आगे जाकर विक्रमादित्यके नामसे प्रसिद्ध हुआ और मुनिजीकी उक्त एकार्थक वार्ता भी सिद्ध हो सकती है। ८ आन्ध्रसिक्के और इतिहास पृ. ६१५; भा. इ. रूपरेखा पृ. ७८२ १ मार्शल-गाइड टू सांची पृ. १३; भा. इ. रूपरेखा पृ. ७९२ For Private And Personal Use Only
SR No.521597
Book TitleJain_Satyaprakash 1944 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1944
Total Pages244
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size120 MB
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