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विभ--विशेषां ] કાલકાચાર્ય ઔર વિક્રમ
[१६४ जैन साहित्यमें महावीरनिर्वाण और विक्रमाब्दके आरंभ तकको राज-परंपराका उल्लेख मिलता है और यही प्रचलित जैन कालगणना है । इसके अनुसार महावीरके ठीक निर्वाण बाद पालक अवन्ती (उज्जैन) में ई. पू. ५२७ में राजगद्दी पर बैठा और उसने ६० वर्ष राज किया, इसके बाद १५५ नंदवंशका, १०८ मौर्यवंशका, ३० वर्ष पुष्यमित्रका, ६० वर्ष बलमित्र-भानुमित्रका (ई. पू. १७४ से ११४), ४० नहवाहन (नहपान) का (ई. पू. ११४ से ७४), १३ वर्ष गर्दभिल्लका (ई. पू. ७४ से ६१) और ४ वर्ष शकका (ई.पू. ६१ से ५७)-इस प्रकार कुल ४७० वर्ष तक विभिन्न वंशोंके राजाओने उज्जैन नगरी पर शासन किया । महावीर निर्वाण ई. पू. ५२७ मेंसे ४७० घटाने से ई. पू. ५७ का समय आ जाता है । यह वही समय है जब विक्रमादित्य बिरुद धारण करनेवाले राजाने ई. पू. ५७ में शकोंका उज्जयनीमें उन्मूलन किया और अपने नामसे विक्रमसंवत् चलाया।
द्वितीय कालककी पहली घटना (गर्दभिल्लोच्छेदवाली) का ही हम इस लेखमें जिक्र करेंगे एवं कालकाचार्य के जीवन पर कुछ प्रकाश डालेगें । हमारे इस लेखको रूपरेखा प्रचलित जैन कालगणनापद्धतिको आधार मानकर तैयार की गई है।
कालककथामें लिखा है कि मगधदेशमें 'धारावास' नगरीमें वयरसिंह नामके राजा राज्य करते थे। इनकी रानीका नाम सुरसुन्दरी था । इन दम्पतिके कुमार कालक नामका एक राजकुमार और सरस्वती नामकी एक राजकन्या थी । सरस्वती अत्यन्त सुन्दरी थी। कुमार कालक एक वार घोड़े पर चढ़कर वनमें घूमने गए, वहँ। उन्हें जैनाचार्य गुणाकर मिले, जिनका धर्मोपदेश सुनकर कुमारका मन संसारसे विरक्त हो गया। कुमार कालकने अपने माता-पितासे आज्ञा लेकर गुणाकर आचार्यके पास जैनधर्मकी दीक्षा ली और जैन साधु हो गये। उसी समय सरस्वतीने भी जैन साध्वियोंके पास दीक्षा ग्रहण की । कालकमुनिने जैनशास्त्रोंका अभ्यास कर कालांतर नि. सं. ४५३ (ई. पू.७४) में आचार्यपद प्राप्त कर कालकाचार्य नामसे सर्वत्र विख्यात हुए।
आचार्य कालक अपने कालके जबरदस्त क्रांतीकारी पुरुष थे । निमित्तशास्त्र के प्रकाण्ड ज्ञाता थे । 'विद्या नीचके पास भी हो सीख लेना चाहिये यह बात कालककी घटनासे साबित होती है। उन्होंने आजीवकोंसे निमित्त सीखा था।
३ मुनि कल्याणविजयजी आदि सभी नि. सं. ४५३ (ई. पू. ७४) में गर्दभिल्लोच्छेद वाली घटनाको घटो मानते हैं। किन्तु डा. डब्लू. नारमन ब्राउन अपने कालककथा (The Story of Kalaka, Washington 1933) पृ. ६ में नि. सं. ४५३ में कालकको सूरिपद प्राप्त होना मानते हैं और हमें भी यही अधिक युक्तिसंगत मालूम देता है !
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