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શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [ ક્રમાંક ૧૦૦–૧–૨ एक बार नि.सं. ४५३-६६ के बीचमें आचार्य कालक विचरते२ उज्जयिनी नगरीमें आये। वहां गर्दभिल्ल नामक राजा राज्य करता था। गर्दभिल्लने कालककी युती और रूपवती बहन सरस्वती साध्वीको जबरदस्ती पकड़कर अपने अन्तःपुरमें रख लिया। कालक तथा संघने राजाको बहुत समझाया, पर वह न माना। तब रोषमें आकर कालकाचार्यने यह भीषण प्रतिज्ञा की-" यदि गर्दभिल्लका राज्योन्मूलन न करूं तो प्रवचन-संयमोपघातक और उनके उपेक्षकोंकी गतिको प्राप्त होउं ।" इस तरह गर्दभिल्लके अत्याचारसे तंग आकर कालकने उज्जैन त्याग दिया । वे पारसकूल (फारस) जा पहुँचे । वहाँके राजा साहिके आश्रयमें रहे । निमित्तशास्त्रसे उसका मनोरंजन करने लगे। एक बार उस साहिके अधिराज सहाणुसाहिने शक साहियोंके पास अपने दूत द्वारा एक कटारी भेजी और लिखा कि इससे अपने सिर काट डालो। इस तरह सहाणुसाहिने कुल ९६ कटारीयें भेजी । आचार्य कालकने उन्हें आत्मघात करनेसे मना किया और कहा-'चलो, हिंदुकदेश (हिन्दुस्तान) को चले चलें ।' इस प्रकार ९६ साहि सिन्धुमार्ग (समुद्र मार्ग) द्वारा सौराष्ट्र (काठियावाड़) में आये । उन्होंने सौराष्ट्रको ९६ भागोंमें बाट लिया और कालकका आश्रयदाता साहि सबका अधिपति हुआ। वर्षाकाल समात होने पर कालकाचार्यने साहिको उज्जैन पर घेरा डालनेको कहा । तब सब साहियोंने अन्य राजाओं के साथ उज्जयिनी पर घेरा डाला । आचार्य कालकके निमित्तज्ञानकी सहायतासे उन्होंने नि. सं. ४६६ (ई. पू. ५१) में राजा गर्दभिल्लको परास्त किया। इस प्रका आचार्य कालकने गर्दभिल्लका उन्मूलन कर अपनी प्रतिज्ञाको पूर्ण किया और अपनी बहनको फिरसे संयम पालने में प्रवृत्त किया।
अंतमें उज्जयिनीका शासन उस साहिको सुपर्द किया गया जो आचार्य कालकका आश्रयदाता था। यहींसे शकराज्य उजैनमें शुरू होता है । इस शकसाहिने ४ वर्ष (ई. पू. ६१ से ५७) तक राज्य किया। इस कथाके अंतमें कालक कथामें लिखा है कि विक्रमसे पहले शकोंका राज्य था जिन्हें विक्रमादित्य उपाधिवाले हिंदू राजाने परास्त किया। इस कथामें यह भी लिखा है कि विक्रमसंवत्के प्रवर्तकने जैनधर्मके संरक्षक शकोंको मालवामें परास्त किया
और विक्रमसंवत् १३५ वर्ष तक प्रयोगमें आता रहा, किंतु इस अवविके पश्चात् किसी दसरे विजेताने दूसरा संवत् चलाया; निःसंदेह यह दूसरा संवत् शकसंवत् ही था जो ७८ ई. में शुरू हुआ और जिसका विक्रमसंवत्से १३५ वर्षका अन्तर था।
इस कालकाचार्य कथा' की प्रामाणिकताको मानकर पुरातत्त्ववेत्ता स्टेन कोनो (Sten Knowo] का कथन है कि-"इस जैन कथा पर अविश्वास करनेका लेश मात्र भी कारण मुझे प्रतीत नहीं होता।
४ Story of Kalaka by W. N. Brown .p. 60.
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