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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૧૯૮] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [ કમાંક ૧૦૦-૧-૨ सुवर्णभूमिमें प्रशिष्यके पास जाना नि. सं. ४५७ के बाद और ४६५ के पहले, (४) इन्द्रके सामने निगोदके जीवोंका व्याख्यान करना नि. सं. ३३६ से ३७६ तक (ई. पू. १९१-- १५१), (५) आजीवकोंके पास निमित्तपठन और कालक--संहिताकी रचना नि.सं. ४५३ (ई. पू. ७४) के पहले, (६) प्रथमानुयोग और गंडिकानुयोगका निर्माण नि. सं. ४५३ (ई. पू. ७४ )के पहले और (७) दत्तराजाके सामने यज्ञफलका निरूपण नि. सं. ३००से ३३५ ( ई. स. २२७–१८०) तकमें। मुनि कल्याणविजयजीने चौथी और सातवों घटनाका सम्बन्ध प्रथम कालकाचार्यसे बताया है और अवशेष घटनाओंका सम्बन्ध द्वितीय कालकाचार्यसे बताया है। 'वालभीयुगप्रधान पट्टावली'के अनुसार दूसरी घटना-चतुर्थी के दिन पर्युषण पर्व करनेका सम्बन्ध चतुर्थ कालकसे होना चाहिये-किन्तु मुनिजी इसे असंगत बताते हुओ, इस घटनाका सम्बन्ध द्वितीय कालकसे होना मानते हैं। इसे सिद्ध करनेके लिये बलभित्र-भानुमित्रका समय जो प्रचलित जैन कालगणनानुसार नि. सं. ३५३-४१३ (ई. पू. १७४-११४)का है उसे वे नि.सं. ४१४ से ४७३ (ई. पू. ११३-५४) का मानते हैं । किन्तु हमें प्रचलित जैन काल. गगना पर अविश्वास करनेका कारण कुछ नहीं प्रतीत होता । हमारे ख्यालसे चतुर्थीके दिन पर्युषण पर्व करनेकी घटना प्रथम कालकाचार्यके समयमें घटो होगी और यह घटना उन्हींसे सम्बन्ध रखती है। इस घटनामें कालकाचार्यका बलमित्र-भानुमित्र द्वारा उज्जैनसे निर्वासित होनेका और वहाँसे पईठाण (प्रतिष्ठानपुर) जानेकी वार्ता है एवं प्रतिष्ठानपुरके राजा सातवाहनके जैन श्रावक एवं उसीके कहनेसे चतुर्थीके दिन पर्युषणा करनेका भी जिक्र है। किन्हीं किन्हीं कथाओंमें बलमित्र-भानुमित्रके कालकाचार्यके भानजे होनेकी भी बात है। प्रचलित जैन कालगणनानुसार बलमित्र-भानुमित्रका समय प्रथम कालकसे ही सम्बन्ध रखता है और उस समय वे ही उज्जैनके शासक और युवराज थे। प्रथम कालक जातिके ब्राह्मण थे। श्रीयुत् जयचंद्र विद्यालंकारके अनुसार बलमित्र--भानुमित्र भी शुंगवंशके ब्राह्मण राजकुमार थे। यह संभव है कि वे प्रथम कालकके भानजे हों। यह बात इतिहाससे मालूम होती है कि सातवाहन वंशका संस्थापक सिमुक सातवाहन था, सातवाहनके वंशजोंका ही प्रतिष्ठानमें राज्य था । संभव है प्रथम कालक जब उज्जैनसे निर्वासित होकर प्रतिष्ठान आये तब वहाँ सातवाहन अपने वंशके नामसे प्रसिद्ध होगा, और वह कालकके उपदेशसे जैन श्रावक बना और उसीके कहनेसे आचार्यने पंचमीके बजाय चतुर्थीको पर्युपणा की । हमारे ख्यालसे यह घटना वीरनिर्वाणसंवत् ३५४ से ३७६ के बीच घटी होगी। अवशेष पहली, तीसरी, पांचवी और छठी घटनाका सम्बन्ध द्वितीय कालकसे है, इससे हम भी सहमत हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.521597
Book TitleJain_Satyaprakash 1944 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1944
Total Pages244
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size120 MB
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