SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८१] श्री मन सत्य १ [भांड १००-१-२ बात न रही तो मैं जलके मर जाउंगी । ब्राह्मणने विचार किया कि एक रत्न लेनेसे मैं कभी बच जाउं तो दो हत्याएं तो जरूर होगी, इस लिये रत्नको लेना बला निमंत्रित करने जैसा है। अतः राजाके पास जाकर चारों रत्न रख दिये और अपने कुटुंबको सारी बात सुनाई । परोपकारी राजाने अपनी उदारताका पूर्ण परिचय दिखलाया, और कह दिया कि जाओ चारों ही रत्ने ले जाओ, मुझे एककी भी जरूर नहीं। आहा हा !! कैसी उदारता, कैसा परोपकार । कैसी दयालुता । धन्य हो ऐसे उदात्त जीवनको।। धन्यनाम विक्रम श्री सिद्धसेन दिवाकर म.की वाणीसे भिगा हुआ था और जिनेश्वरोका अनन्य भक्त था और महावतकी महत्ताको दिलसे चाहनेवाला था । श्री सिद्धसेनदिवाकर महाराज जैनशासनमें आदि कवि कहलाते हैं, श्री हेमचंद्राचार्य महाराज सिद्धहेम व्याकरणमें लिखते हैं कि 'अनुसिद्धसेनं कवयः' इससे यह बात बराबर सिद्ध है । आपने न्यायावतार, सम्मतितर्क आदि अपूर्व न्यायग्रन्थ और अनेक द्वात्रिंशिकायें निर्मित करके जैन समाजको ऋणि बनाया है । आपके ही अज़ब चमत्कारसे राजा विक्रम जैनधर्मको पाया है। कितनेक लोग विक्रम और सिद्धसेन दिवाकर म.को समकालीन नहीं मानते हैं, और उस विषयमें जो अनुमान करते हैं वह अनुमान नहीं किन्तु अनुमानाभास हैं । श्री सिद्धसेन दिवाकरजी म.ने लक्षणमें अभ्रान्त शब्द दाखिल किया है वह बौद्धाचार्य श्री धर्मकीर्तिके लक्षगमेंसे लेकर किया है यह अनुमान झूठा है, क्योंकि-श्री धर्मक र्तिसे प्रथम हुए गौतम ऋपिने अपने न्यायदर्शनमें लक्षणमें अव्यभिचारी शब्द लिखा है । अव्यभिचारी और अभ्रान्त पर्यायवाची शब्द हैं जिससे ऐसे पर्यायवाची शब्द एक दूसरे लक्षणकारके सदृश आजानेसे यह पहिले थे और यह पीछे थे, ऐसा लिखना किसी तरह उचित नहीं हो सकता । अमुक शब्द अमुकके मस्तिष्कसे प्रथम ही निकले, और दूसरेके मस्तिष्कसे नहीं निकले ऐसा अनुमान बुद्धिशाली नहीं कर सकता है। इससे हम जोरसे कह सकते हैं कि श्री सिद्धसेन दिवाकर म. विक्रमके समकालीन ही हैं और आपके उपदेशका असर राजा विक्रमके दिलमें जबरदस्त पडा था। उसने गिरिराज श्रीसिद्धाचलजीका आपके ही उपदेशसे संघ निकाला था, जिसमें श्री. सिद्धसेन दिवाकर म. आदि ५०० आचार्य और ७० लाख श्रावकके कुटुंब सामिल थे। १६९ सोनेके, ३०० चांदीके, ५०० हाथीदांतके, और १८०० काष्ठके जैन मन्दिर थे। कारण कि एक भी भावुक दर्शनसे वंचित न रहे । एक क्रोड दो लाख और नौसौ रथ १८ लाख घोडे छ हजार हाथी थे और ऊंट खच्चर आदिकी गिनती नहीं थी। पालीताणाकी यात्रा करके वहांके मन्दिरोंका जीर्णोद्धार कराया और श्री गिरनारजीकी यात्रा करके संघ वापिस आया । अपने जीवनमें अनेक जिनपतियोंके तीर्थस्थ प्रतिबिम्बोंके खुद दर्शन करनेवाले और अगणित द्रव्य खरच करके क्रोडोंको दर्शन करवानेवाले महाराजा विक्रम ! धन्य हो आपकी जीवनीको । For Private And Personal Use Only
SR No.521597
Book TitleJain_Satyaprakash 1944 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1944
Total Pages244
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size120 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy