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[100] શ્રી જેન સત્ય પ્રકાશ
[१९८ 'श्रावकाचार' में उ०१ का तीसरा श्लोक तो वही है सिर्फ चौथे चरण में 'वन्दे जिनविधुं गुरुम्' इतना फरक रक्खा है, मगर कुन्दकुन्द आचार्यने इसके प्रथम-अक्षरों का भेद नहीं पाया।
उक्त दोनों गलतीयां इतनी विशद हैं कि और २ प्रमाणों की अपेक्षा रहती नहीं है।
___ खोजी विद्वानोंने उस ग्रंथ की परख कर ली, और आमतौरसे जाहिर कर दिया कि-'कुन्दकुन्द श्रावकाचार' जिनदत्तोय-'विवेकविलाम' का ही सरासरी अनुकारण है, यानी पक्षभेद के जरिए नामांतर है।
__ 'अरिहन्त-चैत्य' शब्दका अर्थ
[एक विचारणा] लेखक-पू. आ. म. श्री. विजयलब्धिसूरीश्वरजीशिष्य पूज्य मुनिमहाराज श्री विक्रमविजयजी
(गतांकसे क्रमशः) __ " अन्य यूथ जानेवाला साधु जैनत्वके गुणसे रहित हो जाता है तथा पूर्व समाज के लिये हानिकारक है ( भ्रष्ट पंचकादिवत् ) इसलिये त्याज्य है, किन्तु मूर्ति में तो गुण अवगुणका प्रश्न ही नहीं, न अजैनंकि हाथमें जानेसे भय ही है"ऐसा प्रत्यालोचकका लेख है । विचार तो बहुत सुंदर है, किन्तु कुछ अंशमें भूल है, अन्य यूथमें जानेबाला साधु जैनत्वके गुणसे रहित हो जाता है इसमें कारण यह है कि-जैनयोग्य आचरण न होनेसे वेषभूषादिके परिवर्तनसे अथवा अन्य यूथिकोंके संसर्गके कारण पदार्थकी विपरीत प्ररूपणासे; न कि केवल अन्य यूथमें जाने मात्रसे एवं अन्य तीर्थ के सिद्धान्तके ग्रहणमात्रसे । क्योंकि मिथ्यादृष्टिके दर्शनशास्त्र सम्यगदृष्टिसे परिगृहीत होनेपर वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है एवं मतिरूप सम्यग्ज्ञान और श्रुतज्ञान मिथ्यादृष्टिसे परिगृहीत हो तो वो मिथ्या ज्ञान श्रुत-अज्ञान कहलाता है। केवल जानने मात्रसे नहीं, किन्तु असत् प्ररूपणा द्वारा, भव्य जीवोंको जैनमार्गम विपरीत ज्ञानका उत्पादक होने के कारण सम्यगज्ञान सम्यक श्रुत नहीं कहलाता है। इसी प्रकार भगवतमूर्ति भी अन्य तीर्थीकों के हाथमें जानेसे उनकी की हुई अविधि पूजाप्रभति भव्योंको अशुद्ध भावोत्पादक हो जाती है। अशुभ भावोत्पादकत्वरूप अवगुण अन्य तीर्थिक परिगृहीत प्रतिमाओंमें है, मिश्रित और केबल सम्यगदृष्टि परि गृहीत प्रतिमामें विशुद्ध भावोत्पादकगुणत्व है इसलिये 'मूर्ति में गुण अवगुणका प्रश्न ही नहीं' ऐसा लिखना अन्याय है। मक्षोजी
और केमरीयाजी एकदम नाम आकृति विभूषादिसे परिवर्तन नहीं है, जिससे अशुभ भावका उत्पादक हो सके। और एकदम मिथ्यादृष्टि परिगृहीत भी नहीं है इसलिये कोई हरकत नहीं।
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