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५५. सीस (24) स. अपिशीष ()
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अंग्रेजी कोष में इस प्रकार दिया है.-" कपिशिरस् n. the upper part or coping of u wall, L. कपिखोर्ष n. id., Vear.” वामन शीवराम आपटे ने अपने संस्कृत-अंग्रेजी कोष में 'कपिशीर्षक'का 'vermillion, (Marathi हिंगुळ)" अर्थ भी दिया है।
जैन साहित्य में “कपिशीर्ष" तथा "कपिशीर्षक" शब्द 'दीवार के बुर्ज' अर्थ में प्रयुक्त हुए और ग्रन्थों में भी मिलते हैं । जैसे
१. श्री बुद्धिविजय अपने चित्रसेनपद्मावतीचरित्र" में स्वयंवर मण्डप का वर्णन करते हुए लिखते हैं---
प्राकारकपिशीर्षालीप्रतोलीप्रतिभासितः ॥ १८४ ॥ २. "भीमकुमारकथा” नामक ग्रन्थ के आदि श्लोक में
कपिशीर्षकदलकलितं जिनभवनसुकेसरं श्रियाश्लिष्टम् ।
किन्तुजडसंगमुक्कं इहत्थि कमलं व कमलपुरं ॥ १ ॥ यह ग्रन्थ अभी अप्रकाशित है। इसकी दो प्रतियां पंजाब के भंडार में सुरक्षित हैं । समग्र ग्रन्थ संस्कृत-प्राकृत रेखता में लिखा हुआ है अर्थात् प्रत्येक पद्य का पूर्वार्ध संस्कृत में और उत्तरार्ध प्राकृत में है ।
साधारण रीति से 'कपिशीर्षक 'का 'कइसीसअ' होना चाहिये । परन्तु प्राकृत में 'कविसीसय' से 'कवसीसय' होकर अपभ्रंश में 'कउसीसअ' हो गया प्रतीत होता है । मराठी में अब भी ‘कपित्थ' को 'कोठ' बोलते हैं।
ता. ७-७-४२, जैन विद्या भवन, कृष्णनगर, लाहोर
* Banarsi Das Jain : A Catalogue of manuscripts in the Panjab Jain Bhandars. Lahore 1939. P. 138.
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કળા અને શાસ્ત્રીય દષ્ટિએ સર્વાગ સુંદર ભગવાન મહાવીર સ્વામીનું ત્રિરંગી ચિત્ર १४"x१०" सा : साई ५२ त्रिी ७५४ : सोनेरी माई२ : भूख्य-यार माना (2पास मर्थन हो मा नुहो.)
શ્રી જૈનધર્મ સત્યપ્રકાશક સમિતિ शिमानी वाडी : घीsil, अमावा.
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