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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संखवाल गोत्रका संक्षिप्त इतिहास लेखक : श्रीयुत अगरचंदजी नाहटा, संपादक “ राजस्थानी" ओसवाल जातिमें गोत्रोंकी संख्या अन्य सर्व जातियोंसे अधिक है । पर इनका इतिहास इतना अन्धकारमें है कि किसी भी गोत्रके विषयमें निश्चिततया कोई बात नहीं कही जा सकती। इसका प्रधान कारण हमारी उपेक्षा है । अपने पूर्वजोंने तो इतिहास सुरक्षित रखने के लिये बडे भारी प्रयत्न किये थे, प्रत्येक गोत्रवालोंके भाट, मथेरण, वंशावलि-लेखक रहते थे और उनको केवल ऐतिहासिक नोंध रखनेके लिये ही बहुत सा द्रव्य दिया जाता था। जन्म, विवाहादि के उपलक्षमें उनके आयके लिए कई रीति-रस्में ( लागदाये ) कायम की गई थीं, अब भी मारवाड़ आदिमें जब भाट आता है तो उसका बड़ा भारी आदर किया जाता है, उनको 'भाट राजा' के नामसे संबोधित किया जाता है, खानेके लिये बहुत तैयारियां की जाती हैं और जन्म, विवाहादिकी नोंध लिखनेके बाद विदाइके समय वस्त्रालंकार पवं नगद रूपये मेट कीये जाते हैं। अच्छे आसन पर बैठाकर कुटुम्बके सब लोक इकट्ठे होकर उनसे अपनी पूर्वपरम्पराकी नामावलि सुनते हैं । सब कुछ होने पर भी जिस उद्देश्यसे उनका इतना आर्थिक आदर किया जाता है और द्रव्य व्यय किया जाता है उसकी सफलताके लिये हमें तनिक भी ध्यान नहीं है, यही एक आश्चर्य एवं खेदका विषय है। ____इसी प्रकार मथेरण लोग भो जो पहले शिथिलाचारी जैन यतियोंसे बने थे, जैन थे, पर हमारी उपेक्षासे वे अब शैव बन गये हैं। भोजकोंको भी हजारों रुपये प्रतिवर्ष अब भी " त्याग" आदि दान दक्षिणामें दिये जाते हैं, वे ओसवालोंके ही याचक कहे जाते हैं। वे भी पहले जैन मूर्तियोंकी पूजासेवा करते थे, जैनधर्मसे भी उनका घनिष्ट सम्बन्ध था, पर अब वे भी जैनधर्मको छौड़ बैठे है। इसीके कारण मंदिरोंकी पूजा विधिसे नहीं होती, आशातनाओंका आधिकय और आये दिन झगडे फसाद हो रहे हैं। भोजकोंमें कई सुकवि हो गये हैं जिन्होंने ओसवाल झातिके दानीयोंकी प्रशंसामें बहुतसे छंद कवित्तादि बनाये थे पर हमे उनका भी पता तक नहीं है। .. हमारी उपेक्षा के कारण जिस निमत्तसे भाट आदि वंशावलि लेखक हजारों रुपये हमारी समाजसे लेते हैं उसकी ओर उन्होंने भी वैसा मनोयोग नहीं दिया और पूर्वकालीन इतिहास मनमाना कपोल कल्पित बना डाला, जिसकी कल्पनाने जैसा सुझाया लिख डाला । फलतः भाट और गच्छके श्रीपूज्यों आदिकी वहियों में परस्पर कोई मिलान नहीं है । एक ही गोत्रकी उत्पत्तिके विषयमें भिन्न भिन्न प्रवाद नजर आते हैं। ऐसी अन्धाधुन्धी एवं अव्यवस्थाके कारण वास्तविक इतिहास दुर्लभसा हो गया है। घटनाके समकालीन लिखित इतिहास For Private And Personal Use Only
SR No.521574
Book TitleJain_Satyaprakash 1941 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1941
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size22 MB
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