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[ २८४ ]
શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
[ वर्ष ७
तो मिलता नहीं और पीछले प्रवाद इतने विरोधी एवं असंगत प्रतीत होते हैं कि किसको सच्चा माना जाय ? बुद्धि कुछ काम ही नहीं देती ।
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इतना प्रासंगिक निवेदन करनेके पश्चात् अब मूल विषय पर आते हैं । खरतरगच्छ में १५ वीं शताब्दिमें कीर्तिरत्नसूरिजी बहुत विद्वान एवं प्रभावक आचार्य हुए हैं । उनकी शिष्यपरम्परा अब भी ५०० वर्ष होनेपर भी अविछिन्न रूपसे चली आ रही है । विशाल शिष्यसंततिके कारण उनका नाम 'कोत्तिरत्नसूरिशाखा" नामसे प्रसिद्ध है । उनकी शिष्यपरम्परामें श्रीजिनकृपाचंदसूरिजी लब्धप्रतिष्ठ आचार्य थे, जिनका सं. १९९४ में स्वर्गवास हुआ है एवं उनके दोक्षित साधु-साध्वी अच्छी संख्या में विद्यमान हैं। उन कृपाचंदसूरिजी ( पूर्व यति अवस्था ) का बीकानेर में उपाश्रय है उसमें हस्तलिखित एवं मुद्रित ग्रंथोंका अच्छा संग्रह है । हस्तलिखित ग्रन्थोंमें १ गुटकाकार ग्रन्थ और एक टिप्पनाकार संखवालोंका वहीवट है उसमें कीर्तिरत्नसुरिशाखा और संखवाल ज्ञातिका महत्त्वपूर्ण इतिवृत्त लिखा है, एवं हमारे संग्रहमें इस विषयका एक पत्र है । इस लेखमें उन्हींके आधारसे संखवाल गोत्रका इतिहास दिया जाता है ।
चहुआण वास ( ज्ञाति) देवडा गोत्र, मूल नाडुलके निवासी तुकौंके भयसे स्वर्णगिरि आकर रहें । अलाउद्दीनने घेरा डाल अपने अधिकारमें कर लिया । कान्हडदे वीरगतिको प्राप्त हुए। उसके पुत्र वीरमदेके पुत्र लखमसी भयसे संखवाली नगरीमें जाकर रहे। वहां एक जैनाचार्य पधारे, उन्होंने लखमसीको प्रतिबोध देकर श्रावक बनाया । लखमसीसे सं. १२४५ में संखवाली ग्रामसे संखवाल गोत्र प्रसिद्ध हुआ ।
गोत्रदेवी ३ - प्रथम संखवाली, २ सावित्री, ३ अंबिका चौथा स्वर्णगिरिका क्षेत्रपाल ।
लखमसी पुत्र सच्चा पुत्र नरसिंह पुत्र धन्ना पुत्र धनपाल पुत्र राजसी पुत्र आंबवीरके पुत्र कोचर हुए इनसे संखवाल गोत्र बहुत विस्तार पाया । अतः शिलालेखों एवं प्रशस्तियोंमें सर्व प्रथम इन्हींका नाम पाया जाता है । इसका अन्य कारण यह भी है कि खरतरगच्छसे संखवाल गोत्रका सम्बन्ध यहीं से प्रारंभ हुआ । इस सम्बन्धका कारण वंशावलियोंमें इस प्रकार बतलाया गया हैकोचरशाहने कोटडे (कोरटा ) एवं संखवालीमें जैन मन्दिर बनाये संखवाली आदिनाथ मंदिरके निर्माण होनेपर प्रतिष्ठाके समय उनके कुलगुरु किसी कारणवश समय पर वहाँ नहीं पहुँच सके तब अपनी पत्नी कल्याणदेवीके कथनसे खरतरगच्छाचार्य जिनेश्वरसूरिके हस्तकमलसे प्रतिष्ठा करवाई, तभी से सं. १३१३, से कोचरंशाह खरतरगच्छके अनुयायी हो गये । इनके पश्चात् उनकी वंशपरंपराका सम्बन्ध खरतरगच्छसे रहने लगा । आगे चलकर इसी वंशके ज्योतिर्धर कीर्त्तिरत्नसूरिजी से वह सम्बन्ध विशेष दृढ हो गया । कीर्त्तिरत्नसूरिजीका विशेष इतिहास हमारे सम्पादित ऐतिहासिक जैनकाव्य संग्रहमें पृ. ३६ से ४० में देखना चाहिए |
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