SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir દીપાત્સવી અંક ] શ્રી હિરભસૂરિ [ ४७ ] परिचय पूरे तौर से दिया है । और जगह जगह पतञ्जलिके योगशास्त्रगत खास सांकेतिक शब्द का जैन संकेतों के साथ मिलान करके सङ्कीर्ण दृष्टिवाले के लिये एकताका मार्ग खोल दिया है । क्या १४४४ ग्रन्थ निर्माण किये ? ܕܕ क्या हरिभद्रसूरिजीने १४४४ ही ग्रंथ निर्माण किये थे ? इसका कारण और उपलब्ध ग्रन्थोंकी संख्या आदि पर भी एक दृष्टिसे विचार करना आवश्यक है । इस विषय में सभी विचारोंको स्थान देना यहां अनुचित नहीं । (१) प्रतिक्रमण अर्थदीपिका आदिके आधार पर प्रसिद्धि तो यह है कि उन्होंने १४४४ गन्धका निर्माण किया । (२) " चतुर्दशशतप्रकरण प्रोतुंगप्रासादसूत्रणैकसूत्रधारैः" इत्यादि पाठसे उनके ग्रन्थोंकी संख्या १४०० निश्चित की जाती है । (३) राजशेखरसूरिकृत चतुर्विंशतिप्रबन्धके आधारपर ग्रन्थोंकी संख्या १४४० मानी जाती है । अस्तु, उक्त संख्यामेंसे जो भी हो, परन्तु यह तो निर्विवाद रूपसे मानना होगा, कि उन्होंने लगभग १४०० ग्रन्थोंका निर्माण कर जैन साहित्यभण्डारको विकसित किया था । हमारा दुर्भाग्य है कि आज उनका सम्पूर्ण साहित्य उपलब्ध नहीं, बल्कि सैंकडो ग्रन्थोंके नाम तक भी अब उपलब्ध नहीं है, पुरातत्त्व एवं इतिहासके विद्वान् श्रीजिनविजयजीके कथनानुसार उनके उपलब्ध ग्रन्थ २८ हैं जिनमें से २० ग्रन्थ छप चुके हैं । इतिहासवेत्ता पं. कल्याणविजयजीने उपलब्ध ग्रन्थोंकी सूची तैय्यार की है । For Private And Personal Use Only सभी ग्रन्थ उपलब्ध क्यों नहीं ! यह प्रश्न हो सकता है कि यदि १४४४ जितनी विशाल संख्या में उन्होंने साहित्यरचना की थी तो फिर ग्रन्थ उपलब्ध क्यों नहीं ? इस प्रश्नके उत्तरके लिये हमें इतिहास की ओर दृष्टिपात करना होगा। आगेकी घटनासे यह भलीभांति प्रतीत होगा, कि उस समय बौद्धोंकी विशेष प्रबलता थी, बौद्धदार्शनिक जैनधर्मको समूल नष्ट करनेपर तुले हुए थे । समय समय पर वैदिक धर्मावलम्बियोंने भो जैनधर्मका उच्छेद करनेके लिये प्रयत्न किया। उक्त कारणोंसे जैनधर्म के साहित्यको पर्याप्त हानि पहुंची। इसके बाद मुसलमानों के भारतआक्रमण के समय भी भारतीय साहित्यके साथ जैन साहित्य नष्ट हुआ, और इन आपत्तियों के कारण साहित्यको सुरक्षित रखनेके लिये भण्डार बन्ध कर दिये गये,
SR No.521573
Book TitleJain_Satyaprakash 1941 09 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1941
Total Pages263
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size130 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy