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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४] શ્રી જેન સત્ય પ્રકાશ [ सातभु आचार्यश्री के उपलब्ध ग्रन्थोंमें भी कई अपूर्ण ग्रन्थ उपलब्ध हैं। तत्वार्थ भाष्यको लघुवृत्ति अधूरी-साढ़े पांच अध्याय को ही उपलब्ध है, इसी प्रकार पिण्डनियुक्तिको टीका भी अधूरी ही उपलन्ध है, इससे सम्भव है कि उनके कुछ ग्रन्थ अधूरे भी रहे हों। अथवा अन्य ग्रन्थोंकी तरह उनके अवशिष्टांश अनुपलब्ध हो गये हों। आचार्यश्री की उदारता श्रीहरिभद्रसूरिजीका जीवन भव्य और लोकोत्तर था, सर्वदा शुभ अध्यवसाय और जनकल्याण करनेकी इच्छाके एक केन्द्र के तौर पर अपूर्व साहित्यरचनाका कार्य उन्होंने किया। उनके ग्रन्थों में तलस्पर्शिता, सम्पूर्ण गम्भीरता और अगाध ज्ञान तो है ही, उनके विचारों में भी उदारता, नम्रता और तटस्थता पूर्ण रूपसे झलकती है। उन्होंने जहां जहां अन्य दर्शनों के विषयोंका खण्डन किया है वहांपर, उनके आचर्यों और विद्वानांका नाम गौरवपूर्वक प्रतिष्ठाके साथ उदार व मधुर शब्दो में 'महात्मा, महर्षि, महामतिः' आदि नामसे लिया है। अन्य दार्शनिकोंके प्रति उनके स-मानसूचक शब्द उदारता के ज्वलन्त उदाहरण हैं। वे केवले उदार ही नहीं बल्कि एक निष्पक्ष विद्यासागर थे। उन्होंने जैनदर्शन या अन्य किसी दर्शन के प्रति पक्षपात नहीं किया, इस बातको उन्होंने बहुत सरल शब्दों में स्पष्ट किया है पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद् वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ अर्थात्-मुझे कोई महावीर भगवानके प्रति पक्षपात नहीं, एवं कपिल आदि महर्षियोंके प्रति मुझे द्वेष भी नहीं, परन्तु जिनका वचन युक्तियुक्त होता है वही ग्रहणकरने योग्य- आराध्य है । कितने सुन्दर शब्दों में उन्होंने अपना पवित्र हृदय निकालकर रखा दिया है । और देखियेबन्धुर्न नः स भगवान् रिपवोऽपि नान्ये, साक्षान्न दृष्ट वर एकतरो(तमों)ऽपि चैषाम् । श्रुत्वा वचः सुचरितं च पृथग् विदोषं, वीर गुणातिशयलोलतयाश्रिताः स्मः ॥ अर्थात्-जिनेन्द्र भगवान कोई मेरे भाई नहीं, तथा न ही दूसरे देव मेरे शत्रु हैं, क्योंकि उनमेंसे किसीको मैंने साक्षात् तो देखा नहीं, केवल वीर प्रभुका निषि चरित्र सुनकर और उन्हें अतिशयगुणवाला समझकर मैंने उनका आश्रय लिया है। उनकी उदारताकी ओर संकेत करते हुए पं. सुखलालजीने अपने विचार इन शब्दोंमें प्रकट किये हैं " इसी विचारसमता के कारण श्रीमान् हरिभद्र जैसे जैनाचर्याने महर्षि पतञ्जलिके प्रति अपना हार्दिक आदर प्रकट करके अपने योग विषयक ग्रन्थोंमें गुणग्राहकताका निर्भीक For Private And Personal Use Only
SR No.521573
Book TitleJain_Satyaprakash 1941 09 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1941
Total Pages263
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size130 MB
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