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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [१५ सातभु तो कीड़ों आदिने अपना आहार बनाकर उन्हें नष्ट कर दिया, इसलिये विपुल साहित्यका उपलब्ध न होना सम्भव है। एक और प्रश्न दूसरा प्रश्न यह है कि क्या यह सम्भव है कि एक आचार्य अपने जीवनकाल में १४४४ ग्रन्थ निर्माण कर सकता है ? इससे लिये हमें जैन साधुजीवन पर दृष्टि डालनेकी आवश्यकता है। जैन साधुआंका जीवन ही ऐसा निवृत्तिमय होता है कि उन्हें संसारका कोई झंझट नहीं होता। न धन आदि के परिग्रहकी चिन्ता, न ऐशो-आरामका विचार । उनका ध्येय केवल जनकल्याण और आत्मोनति ही होता है। ऐसे पावन जीवन में एक प्रखर विद्वान की लेखनी से इतने ग्रन्थोंका लिखा जाना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं, और फिर उनके लिये तो इतनी विशाल संख्या के निर्माणका एक प्रबल कारण भी था जो कि जैन समाजके अन्दर किंवदन्तिके रूपमें प्रसिद्ध है श्री हरिभद्रसूरिजीके हंस जौर परमहंस नामक दो परम शिष्य थे । वे आचार्यश्रीके पास जैनदर्शनका अच्छा अभ्यास कर धुरन्धर विद्वान हो गये, परन्तु फिर भी उनकी इच्छा बौद्ध दर्शनका विशेष अभ्यास करनेके लिये किसी बौद्ध प्रदेशमें जानेकी थी। उन्होंने इसके लिये आचार्य श्री हरिभद्रजीसे नम्रता पूर्वक आज्ञा मांगी, परन्तु आचार्यश्रीने भविष्यका विचार कर उन्हें न जानेके लिये समझाया, परन्तु फिर भी वे भेश बदल कर बौद्धाचार्य के पास अभ्यास करनेके लिये चले गये। बौद्धाचार्यके पास पहुंचकर खूब अभ्यास किया, और बौद्धधर्मकी शङ्काओंको अच्छी तरह समझकर कुछ कागजोंपर उनका खण्डन लिखा। बौद्धाचार्यको संदेह होगया कि सम्भव है वे जैन ही हो।उनकी परीक्षा के लिये जाने-आनेके मार्ग (एक दरवाजे में जिनप्रतिमा रखदी,१० बौद्ध विद्यार्थी तो उस पर पांव देकर चले आये और पढ़नेके लिये बैठ गये, परन्तु जब हंस और परमहंस आये तो उन्हें जिनप्रतिमा देखकर आश्चर्य हुआ, ९ वे दोनों शिष्य हरिभद्रसूारजी के गृहस्थावस्थामें भाणेज-बहिनके पुत्र थे, यह भी उल्लेख मिलता है। १० बौद्धाचार्यने एक और परीक्षा भी लो,-"रात के समय सभी शिष्योंको एक कमरे में सुलाया. और उनके विचारोंको जाननेके लिये कुछ गुप्तचर नियत कर दिये। जब सभी विद्यार्थी सो गये तो मकानकी छतगर मिट्टीके टुकडे आदि फेंकनेसे ऐसा आवाज हुआ कि सभी विद्यार्थी भयभीत हो कर उठ बैठे और आपत्ति आई हुई जानकर अपने अपने इष्ट देवक। स्मरण करने लगे। हंस और परमहंस जिनेश्वरदेवकी प्रार्थना करते हुए पकडे गये, परन्तु दोनोंने दो छत्रियां ली और खिडकी-बारी मेंसे बाहर कूद पडे, उन्हें किसी प्रकारका आघात न हुआ और वे तेजीसे भाग निकले।" इत्यादि कुछ परिवर्तित ढंगपर भी उल्लेस्त मिलता है। For Private And Personal Use Only
SR No.521573
Book TitleJain_Satyaprakash 1941 09 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1941
Total Pages263
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size130 MB
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