SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [१५ सात या नहीं ? उनमेंसे कितने ग्रन्थ उपलब्ध हैं ? आदि विषयोंपर यथाशक्ति आगे विवेचन किया जायेगा, परन्तु इतना तो मानना ही पड़ेगा कि उन्होंने अपूर्व और अनुपमेय साहित्यका निर्माण कर जैनसाहित्यमें विपुल वृद्धि की । - आचार्यश्री संस्कृत और प्राकृत भाषाके प्रगाढ़ पण्डित थे, उनमें मौलिक और असाधारण साहित्यनिर्माणकी अद्भुत शक्ति थी। इसी कारण जैनधर्म सम्बन्धी साहित्य आपने संस्कृत और प्राकृतमें गद्य-पद्यमय निर्माण किया । जैन साहित्यका कोई विषय उन्होंने नहीं छोड़ा। उन्होंने द्रव्यानुयोगमें-धर्मसंग्रहणी आदि, गणितानुयोगमें-क्षेत्रसमासटीका आदि, चरणकरणानुयोगमें धर्मबिन्दु और पञ्चवस्तु आदि और धर्मकथानुयोगमें समरादित्यकथा, मुनिपतिचरित्र आदि ग्रन्थोंका निर्माण कर अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभाका परिचय दिया है। आगमसूत्रोंपर सरल संस्कृतमें टीका निर्माण करनेका सर्वप्रथम श्रेय आपको ही है । आपश्रीको केवल जैनधर्म या जैनदर्शनका ही नहीं, बल्कि सभी दर्शन-सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, अद्वैत और चार्वाक दर्शनका भी पूर्ण ज्ञान था, इसी कारण तत्कालीन समग्र दार्शनिक सिद्धान्तोंको चर्चावाले अनेक ग्रन्थ आपने निर्माग किये, जिनमें बहुत ही सुन्दर पद्धतिसे सर्व दर्शनोंकी समालोचना है। षड्दर्शनसमुच्चय और अनेकान्तजयपताका जैसे उपलब्ध ग्रन्थोंसे उनकी प्रखर प्रतिभाका परिचय प्राप्त कर सकते हैं। आचार्यश्रीने जिस विषयको लेकर साहित्यका निर्माण किया, उसीमें अगाध गंभीरता, बहुश्रुतता, समन्वयशक्ति, विचारपूर्ण मध्यस्थता और तलस्पर्शिताका परिचय प्राप्त होता है। उनके केवल योगसाहित्यको लेकर जैनसमाजके सुप्रसिद्ध विद्वान् पं. सुखलालजीने श्री हरिभद्रसूरिजीके सम्बन्धमें जो विचार प्रदर्शित किये हैं उसी परसे पाठक आचार्यश्रीकी साहित्यरचनापद्धतिका अनुमान लगा सकेंगे "........इस शैलीको श्रीमान् हरिभद्रसूरिने एकदम बदलकर तत्कालीन परिस्थिति व लोकरुचिके अनुसार नवीन परिभाषा देकर और वर्णनशैली अपूर्व बनाकर जैन योगसाहित्यमें नया युग उपस्थित किया। इसके सबूतमें उनके बनाये हुए योगबिन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय, योगविंशिका, योगशतक, षोडशक ये ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। इन ग्रन्थोंमें उन्होंने सिर्फ जैन मार्गानुसार योगका वर्णन करके ही सन्तोष नहीं माना है किन्तु पातञ्जलयोगसूत्र में वर्णित योगप्रक्रिया और उसकी खास परिभाषाओं के साथ जैन संकेतोंका मिलान भी किया है, 'योगदृष्टिसमुच्चय'में योगकी आठ दृष्टियोंका जो वर्णन है वह सारे योगसाहित्यमें एक नवीन दिशा है, श्रीमान् हरिभसूरिके योगविषय ग्रन्थ उनकी योगाभिरुचि ओर योगविषयक व्यापक बुद्धिके खासे नमूने हैं। ८ जैनसाहित्यसंशोधक, खण्ड २ अङ्क १. For Private And Personal Use Only
SR No.521573
Book TitleJain_Satyaprakash 1941 09 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1941
Total Pages263
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size130 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy