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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वीपोत्सवी ] શ્રી હરિભદ્રસૂરિ [४५] प्रकार जैनदर्शनकी ओर झुक जाये, यह उनकी गुणग्राहकताका प्रबल प्रमाण है। उनमें दृष्टिराग न था, जाति या सम्प्रदायसे मोह न था, 'जो सच्चा सो मेरा' की दृढ़ भावना थी आर प्रतिज्ञापालनकी थी प्रबल इच्छा । साध्वीशिरोमणि याकिनी महत्तराने उन्हें समझाया कि-शिष्य बनानेका हमारा आचार नहीं, यदि आप चाहें तो मेरे गुरुके पास जाकर उनसे उक्त गाथा का अर्थ पूछे और उनसे ही दीक्षा लेलें। दीक्षा व आचार्यपद याकिनी महत्तराके इस प्रकार समझानेपर वे विद्याधर कुल (गच्छ)के श्रृंगाररूप आचार्य श्री जिनदत्तसूरिजीके पास गये और उनसे दीक्षा ले ली। अपने गुरुके साथ विचरते हुए उन्होंने जैनदर्शनका अब्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। आचार्यश्रीने उन्हें सर्वथा योग्य समझ कर अपने पदपर स्थापित किया अर्थात् आचार्यपदवी दे दी। दीक्षा और आचार्यपदके बाद उनकी अन्य मुख्य प्रवृत्तियां उपलब्ध नहीं, न ही उनके विहारस्थान आदिका विवरण प्राप्त होता है, फिर भी यह अनुमान किया जाता है कि उन्होंने साधुजीवनका अधिकांश समय राजपुतानाके आसपास और गुजरात प्रदेशमें व्यतीत किया होगा, क्योंकि जैनसाधुका कार्य ही विहार करते हुए उपदेश देना है, इसलिये सम्भव है कि वे दूर-देशान्तर भी गये हों। अपूर्व साहित्यसेवा____ उनके जीवनकी मुख्य प्रवृत्ति यदि उपलब्ध है तो साहित्यनिर्माणका अभूपूर्व कार्य । उन्होंने जैनसाहित्यकी सरिताको विपुल प्रवाहमें बहाया, और उसे अधिक समुन्नत किया। अपने जीवनकालमें १४४४ ग्रन्थोंका भिन्न भिन्न विषयोंपर निर्माण करना साधारण कार्य नहीं। क्या उन्होंने १४४४ ही ग्रन्थ निर्माण किये थे? इतने ग्रन्थ निर्माण किये भी जा सकते हैं ___आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजीके गुरु कौन थे? इस विषयमें कुछ मतभेद पाया जाता है, पहिले विद्वानोंका मन्तव्य था कि वे श्री जिनभटसूरिके शिष्य हुए, परन्तु अब कई ऐसे प्रमाण २ उपलब्ध हो चुके हैं जिससे यह मान्यता दृढ़ हो गई है कि उन्होंने श्री जिनदत्तसरिसे दीक्षा ली थी। विद्वानोंका मत है कि जिनभटसूरि उनके विद्यागुरु हों यह सम्भव हो सकता है । १ कहींपर जिनभद्रसूरिका भी उल्लेख है, परन्तु उसके प्रबल प्रमाण उपलब्ध नहीं । २ मुनीश्री कल्याणविजयजी निम्न पाठके आधार पर इस निर्णयपर पहुंचे हैं " समाप्ता चेयं शिष्यहिता नामावश्यकटीकाकृतिः सिताम्बराचार्यजिनभटनिगदानुसारिणो विद्याधरकुलतिलकाचार्यजिनदत्तशिष्यस्य धर्मतो याकिनीमहत्तरासूनोरल्पमतेराचार्यहरिभद्रस्य ।-आवश्यकटीका।" For Private And Personal Use Only
SR No.521573
Book TitleJain_Satyaprakash 1941 09 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1941
Total Pages263
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size130 MB
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