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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४] તત્વાર્થભાષ્ય એર અકલંક [१७५ आदि अनुपलब्ध ग्रन्थों की कल्पना करलेने मात्र से उद्देश्य की सिद्धि नहीं हो सकती । संभव है ये कल्पनायें आगे चलकर समंतभद्रीय गंधहस्तिमहाभाष्य जैसी ही निराधार साबित हों। ___अतएव मानना होगा कि अकलंक देव के समक्ष उमास्वाति का स्वोपज्ञ तत्त्वार्थभाष्य मौजूद था। उन्होंने उसका राजवार्तिक में उपयोग किया है, और उसके साथ अपने कथन की संगति बैठाने का प्रयत्न किया है। जब अकलंक, राजवार्तिक जैसा दिगंबरीय तत्त्वार्थभाष्य या महाभाष्य लिखने बैठे, तो उन्होंने श्वेताम्बरीय लघु तत्त्वार्थभाष्य को सामने रखना उचित समझा हो, इसमें आपत्ति को कोई बात नहीं मालूम होती। राजवार्तिक में तत्त्वार्थभाष्य का प्रतिबिम्ब स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है; उसमें भाष्य की पंक्तियों की पंक्तियाँ ज्यों की त्यों पाई जाती हैं, अमुक सूत्र में जो चर्चा भाष्य में है, वह चर्चा समर्थन अथवा मतभेद रूप से राजवार्तिक में मौजूद है; 'वृत्तौ पंचत्ववचनात् ' वाले राजवार्तिक के उल्लेख की भाष्यवाक्य से बराबर संगति बैठ जाती है; 'भाष्ये बहुकृत्वः षड् द्रव्याणि' वाली राजवार्तिक गत चर्चा का भाष्यगत षड्द्रव्य की चर्चा से मेल है; तथा अर्हत्प्रवचन और अर्हत्प्रवचनहृदयवाला राजवार्तिकगत उल्लेख तो तत्त्वार्थभाष्य के नामांतर को सूचित करता है-ऐसी हालत में जैनशास्त्रपरम्परा को ऐतिहासिक दृष्टि से देखनेवाला ऐसा कौन अभ्यासी होगा, जिसका यह मानने को दिल न चाहे कि अकलंक के सामने तत्वार्थभाष्य मौजूद था। फिर भी यदि प्रस्तुत भाष्य को अस्वीकार करके प्रस्तुत भाष्य के समान वाक्यविन्यासवाले किसी अनुपलब्ध भाष्य की कल्पना की जाय, तो कहना होगा कि वह ऐतिहासिक दृष्टि नहीं, सांप्रदायिक दृष्टि है । For Private And Personal Use Only
SR No.521565
Book TitleJain_Satyaprakash 1940 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1940
Total Pages54
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size27 MB
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