________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
१७४]
www.kobatirth.org
શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(ग) सूत्रपाठसंबंधी उल्लेख-
(अ) राजवार्त्तिक ९ - ३६ - १४ पृ. ३५४ पर " कश्चिदाह धर्ममप्रमत्तस्य तस्यैवेति तन्न किं कारणं " आदि से तत्त्वार्थभाभ्यगत " आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य " सूत्र का सूचन होता है ।
(आ) इससे आगे के वार्तिक में " कश्विदाह उपशांतक्षीणकषाययोश्च धर्म्यं ध्यानं भवति " आदि से भाष्यगत “ उपशांतक्षीणकषाययोश्व " सूत्र का सूचन होता है ।
[ वर्ष
(इ) राजवार्त्तिक में ४-८-३ पृ. १५३ की टीका में " स्यान्मतं द्वयोर्द्वयोरिति वक्तव्यं " से भाष्यगत " शेषाः स्पर्श रूपशब्दमनःप्रवीचारा द्वयोर्द्वयोः " सूत्र का सूचन होता है ।
(ई) राजवार्तिक में ५ - ३६- ३ में " समाधिकावित्यपरेषां पाठः “ बंधे समाधिकौ पारिणामिकौ " का सूचन होता है ।
For Private And Personal Use Only
" से भाष्यगत
भले ही तत्त्वार्थसूत्र के अनेक सूत्रपाठ प्रचलित हों, इससे हमारे कथन में कोई बाधा नहीं आती । हमारा कहना इतना ही है कि ऊपर जिन सूत्रपाठों की चर्चा राजवार्त्तिक में को गई है, वे सूत्रपाठ तत्त्वार्थभाष्य में ज्यों के त्यों मिलते हैं । फिर उन सूत्रों को प्रस्तुत भाग्य के न मानकर अन्य अनुपलब्ध टीकाओं के ही क्यों माना जाय !
सिद्धसेन और हरिभद्र जैसे विद्वानों से लेकर सभी वेताम्बर टीकाकारों ने भाष्य को स्वोपज्ञ माना है । भाष्य के साथ अक्षरशः मतैक्य न होने पर भी इन विद्वानों ने ऐसा कहा है । इतना ही नहीं सिद्धसेन गणि तो उमास्वाति को सूत्रानभिज्ञ कहते हैं, उनके कथन को प्रमत्तगीत तक बताते हैं, लेकिन फिर भी वे भाष्य को स्वोपज्ञ मानकर उसकी टीका लिखते हैं । इसका क्या कारण ? यदि भाष्य स्वोपज्ञ न होता तो फिर उन्हें उसकी टीका लिखने की क्या आवश्यकता थी? जो विद्वान् यह कहता है कि " कुछ दुर्विग्दधों ने भाष्य का अमुक कथन प्रायः नष्ट कर दिया है ", वह यह भी लिख सकता था कि भाष्य स्वोपज्ञ नहीं है । इसी तरह हरिभद्र भी भाष्य की टीका न लिखकर सर्वार्थसिद्धिकार या अकलंक की तरह स्वतंत्र टीका ही लिखते । इसके अलावा, एक बात और है कि सिद्धसेन और हरिभद्र के समकालीन अकलंक ने और विद्यानंदि तक ने भाष्य के साथ मतभेद होते हुए भी उसे अस्वोपज्ञ नहीं कहा । इसका क्या सबब : अभीतक किसी दिगम्बर आचार्य ने भाष्य को अस्वोपज्ञ कहा हो, ऐसा मालूम नहीं होता । शायद सबसे पहले पं. जुगलकिशोरजी को ही यह बात सूझी । यदि सचमुच भाष्य स्वोपज्ञ नहीं है तो उसकी अस्वोपज्ञतासूचक विधिरूप महत्त्वपूर्ण प्रमाण देने की आवश्यकता है । खींचातानी की शास्त्रार्थवृत्ति से अर्हत्प्रवचनहृदय