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તત્ત્વાર્થ ભાષ્ય એર અકલક
[ १७३
(ऊ) तत्त्वार्थभाष्य ४ - २८ की उत्थानिका, पृ. १०१; तथा ५ - ३७ की उत्थानि - का पृ. १२२ की पंक्तियों राजवर्त्तिक ४ -२७ की उत्थानिका पृ. १७५; तथा ५-३७ की उत्थानिका पृ. २४२ की पंक्तियों से क्रमशः प्रायः अक्षरशः मिलती हैं ।
(ए) तत्त्वार्थभाष्य और राजवार्त्तिक की अन्तिम बत्तीस कारिकायें तथा अन्य पद्य । इन कारिकाओं को प्रक्षिप्त कहना भ्रममूलक है ।
कहने की आवश्यकता नहीं कि तत्त्वार्थभाष्य और राजवार्तिक के उक्त अवतरणों का साम्य कुछ आकस्मिक नहीं है । यह भी बात नहीं कि किसी तीसरे ग्रंथ पर से उक्त ग्रंथकारों ने ये अवतरण लिये हैं । यहाँ पर प्रतिपाद्य विषयसंबंधी मतभेद भी नहीं पाया जाता । बल्कि उक्त अवतरगों के (अ) भाग में दी हुई पुलाक आदि की चर्चा, यद्यपि दिगम्बरों के विरुद्ध जाती है, फिर भी उसे प्रायः अक्षरशः राजवार्तिक में लेलिया है ।
(ख) चर्चागत साम्य --
(अ) तत्वार्थभाष्य में ९-५ पृ. १६५ पर समितियों की चर्चा है । इस प्रसंग पर आदाननिक्षेपणसमिति का लक्षण कहते हुए भाष्यकार लिखते हैं- “ रजोहरणपात्रचीवरादीनां पीठफलकादीनां चावश्यकार्थं निरीक्ष्य प्रमृज्य चादाननिक्षेपौ आदाननिक्षेपणसमितिः। ” यहाँ राजवार्तिक में सामान्य से धर्मोपकरणों का कथन है- " धर्मोपकरणानां ग्रहणविसर्जनं प्रति यतनमादाननिक्षेपणासमितिः।” आगे चलकर इसी सूत्र की व्याख्या में पात्रादि का निराकरण करने के लिये “ पात्राभावात् ' आदि तीन वार्त्तिक बनाये गये हैं, और पाणिपुटाहार का समर्थन किया है ।
(आ) तत्त्वार्थभाष्य में ७-९ में जो भूतनिह्नव और अभूतोद्भावन की चर्चा है वह राजवार्त्तिक में ७–१४–५, पृ. २७६ पर स्पष्ट है ।
(इ) तत्त्वार्थभाष्य में ९-२४ पृ. १७९ पर धर्मोपकरण गिनाये गये हैं । राजवार्त्तिक में भी इन उपकरणों को गिनाया है। अंतर इतना है कि 'वस्त्रपात्र' की जगह " प्राक औषधि' का ग्रहण किया है ।
(ई) बौद्ध सम्प्रदायगत लोकधातुओं की चर्चा दोनों में समान है (देखो 'अनेकांत ' पृ. ३०५ ) ।
इन उल्लेखों में जो परस्पर प्रतिपाद्यविषयसंबंधी मतभेद है, उससे यही सूचन होता है कि तत्त्वार्थभाष्य में जो बातें दिगम्बराम्नाय के विरुद्ध थीं, उन्हें राजवार्त्तिक में स्थान नहीं दिया गया ।
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