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१७२] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
[ १ कथन का समर्थन करता है । यहाँ उमास्वाति ने स्पष्ट कहा है कि " अजीवकायाः " आदि सूत्र में 'काय' शब्द का ग्रहण प्रदेशबहुत्व बताने के लिये तथा काल में बहुप्रदेशीपना असिद्ध करने के लिये किया गया है । यदि उमास्वाति काल नहीं मानते, तो फिर उक्त वाक्य व्यर्थ पड़ता है।
(ग) प्रस्तुत प्रसंग में भाष्य का वाच्य राजवार्तिक इसलिये नहीं हो सकता कि राजवार्तिक में स्पष्ट रूप से छह द्रव्यों का उल्लेख है। उसके विषय में यह चर्चा ही नहीं उठ सकती । इस चर्चा का लक्ष्य तो कोई ऐसा हो ग्रंथ होना चाहिये, जिसमें छह द्रव्यों के विषय में कुछ मतभेद की बात चल रही हो। और यह मतभेद प्रस्तुत भाष्य में मौजूद है, जिसका मूल कारण है " कालश्चेत्येके" सूत्र । तथा यदि यहाँ भाष्यपद का वाच्य राजवार्तिकभाष्य होता तो ' भाष्ये' न लिखकर अकलंक देव को 'पूर्वत्र ' आदि कोई शब्द लिखना चाहिये था, जैसा उन्होंने अन्यत्र किया है। ५ तत्त्वार्थभाष्य और राजवार्तिक में कुछ शब्गत और चर्चागत
साम्य तथा सूत्रपाठसंबंधी उल्लेख (क) शब्दगत साम्य--
(अ) तत्त्वार्थभाष्य पृ. १८५ से १८७ तक का भाष्य राजवार्तिक, ९. ४७-४ पृ. ३५९ की टीका से प्रायः अक्षरश: मिलता है। यहाँ पुलाक, बकुश आदि मुनियों की चर्चा है ।
(आ) तत्त्वार्थभाष्य ७-४ पृ. १३८ का भाष्य राजवार्तिक ७-९-२ पृ. २७२ की टीका से प्रायः अक्षरशः मिलता है । यहाँ हिंसक आदि को निन्दनीय कहा गया है।
(इ) तत्त्वार्थभाष्य ९-६ पृ. १६५ का भाष्य राजवार्तिक ९-६-२८ पृ. ३२६ के वार्तिक और उसकी टीका से प्रायः अक्षरशः मिलता है । यहाँ उत्तम क्षमा आदि का वर्णन है।
(ई) तत्त्वार्थभाष्य ९-७ पृ. १७०-१ का भाष्य राजवार्तिक ९-७-४, ५, ६, ७ की टीका से प्रायः अक्षरशः मिलता है । यहाँ एकत्व, अन्यत्व, अशुचि और आस्रव आदि भावनाओं का वर्णन है ।
___ (उ) देखो अनेकांत (३-४) पृ. ३०६ पर नं. २ के (ग) और (घ) भाग में भाष्य और राजवार्तिक की पंक्तियों की तुलना । यहाँ असुरकुमार जाति के देवों आदिका वर्णन है। दिया था। इस उल्लेख की चर्चा करते हुए, ‘काल द्रव्य बहुप्रदेशी न होने से कायवान् नहीं' की जगह मैं 'काल द्रव्य बहुप्रदेशा होने से कायवान् नहीं' ऐसा वाक्य भूल से लिख गया था। 'अनेकांत' के विद्वान् सम्पादक ने इस वाक्य को ऐसे ही छापकर, उस वाक्य का हास्य करके अपनी सम्पादनकला का परिचय दिया है।
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