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તત્વાર્થભાષ્ય ર અકલંક (ख) उमास्वाति छह द्रव्यों को मानते हैं, इसका एक और प्रबल प्रमाण 'सर्वं षट्त्वं षड्द्रव्यावरोधात् ' वाला भाष्य का उल्लेख है । यह कहना बड़ा विचित्र मालूम होता है कि " भाष्यकार द्वारा विधान रूप से 'षड् द्रव्याणि ' ऐसा कहीं भी नहीं लिखा गया ।" तथा " भाष्यकार ने यहाँ आगमकथित दूसरी मान्यता अथवा दूसरों के अध्यवसाय की दृष्टि से 'षड् द्रव्य ' का उल्लेख मात्र किया है।" यहाँ प्रश्न होता है कि ऊपर 'षड्द्रव्यावरोधात् ' वाला उल्लेख क्या निषेधात्मक है ? 'षड् द्रव्याणि ' पद हो तो ही उसे छह द्रव्यों का विधान रूप उल्लेख माना जाय, अन्यथा नहीं, ऐसी तो कोई बात है नहीं। अतएव मानना होगा कि यहाँ 'षड्दव्य'का केवल ' उल्लेख मात्र' नहीं, बल्कि स्पष्ट कथन है, जैसा कि उमास्वाति की प्रशमरति में छह द्रव्यों का स्पष्ट कथन है । सिद्धसेन ने उक्त वाक्य की टीका करते हुए जो यह लिखा है-“सर्वं षट्स्वभावं जगत्, कुतः षड्द्रव्यावरोधादिति । षड् द्रव्याणि कथं ? उच्यते पंच धर्मादीनि कालश्चेत्येके इति, " यहा कालश्चेत्येके का अर्थ यह नहीं है कि उमास्वाति काल द्रव्य नहीं मानते । उक्त सूत्र से उमास्वाति, केवल कालद्रव्यसंबंधी पूर्वाचार्यों का मतमेद बताना चाहते हैं, तथा 'एके आचार्याः' पद में स्वयं उमास्वाति का भी समावेश हो सकता है। यह बात ऊपर आचुकी है।
___ सम्पादकीय विचारणा में कहा गया था कि "प्रस्तुत भाष्य में बहुत वार तो क्या एक वार भी 'षड् द्रव्याणि' ऐसा कहीं उल्लेख अथवा विधान नहीं मिलता"। जब उक्त उल्लेख तत्वार्थभाष्य में बतादिया गया, तो अब कहा जाता है कि यह उल्लेख तीन बार बताइये । मैं तो कहता हूं कि यदि 'षड्द्रव्यावरोधात् ' वाला उल्लेख तत्वार्थभाष्य में कदाचित् न भी मिलता, तो भी कोई बाधा नहीं थी । उमारवाति काल को मानते हैं, उन्हों ने कहीं भी उसका खंडन नहीं किया, अथवा जीवाजीव की पर्याय नहीं बताया, यह बात ऊपर सप्रमाण सिद्ध की जा चुकी है । 'बहुकृत्वः' का अर्थ यह नहीं कि भाष्य में 'षड् द्रव्याणि' उल्लेख कम से कम तीन बार या चार बार मिलना ही चाहिये । उसका सामान्य अर्थ यही है कि उस भाष्य में कई जगह छह द्रव्यों की मान्यता का उल्लेख मिलना चाहिये । यह बात प्रस्तुत भाष्य में मिलती है, क्योंकि उमास्वाति छह द्रव्य मानते हैं। उमास्वाति का " कायग्रहणं प्रदेशावयवबहुत्वार्थमद्धासमयप्रतिषेधार्थं च " वाला उल्लेख भी इसी प्राणापानसुखदुःखजीवितमरणोपग्रहमूर्तत्वादयः पुद्गलानाम् । अथवाऽसंख्येयादिप्रदेशानादिपरिणामस्वभावता वा भूतार्थता मूर्तताऽमूर्तता चेति.........अतः स्वगुणमपहाय नान्यदीयगुणसम्परिग्रहमेतान्यातिष्ठन्ते, तस्मादवस्थितानि । (सिद्धसेनगणिटीका, भाग १ पृ. ३२३)
१ यह उल्लेख मैंने अपने 'तत्त्वार्थभाष्य और अकलंक' नामक दूसरे लेख में 'अनेकांत' में
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