________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
आगमगच्छीय आचार्यपरम्पराकी नामावलि संग्राहक-श्रीयुत अगरचन्दजी नाहटा, सम्पादक “ राजस्थानी"
श्वेतांबर जैनसमाजमें गच्छोंकी संख्या सौसे भी अधिक हो गई है। उनमें से अब केवल ७-८ गच्छ ही रह गए हैं । जो गच्छ अब विद्यमान नहीं है उनमेंसे कई गच्छ तो कई शताब्दीयों तक विद्यमान थे और उनमें बहुतसे विद्वान हो गये है। अतएव उन गच्छोंका इतिहास प्रयत्न करने पर शंखलाबद्ध किया जा सकता है। पल्लिवाल गच्छके संबंध मेंने एक निबंध आत्मानन्द शताब्दी स्मारक ग्रंथमें प्रकाशित किया था। उसके बाद विजयराजेन्द्रसरि ज्ञानभंडार आहोर-से उसी गच्छकी एक अन्य शाखाकी प्राकृत पट्टावली . उपलब्ध हुई है । गत वर्ष श्रीयुत मोहनलाल द. देसाईके पास कडवा मतकी विस्तृत पट्टावली देखी थी, जो कि ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत ही उपयोगी है। कई अप्रसिद्ध पट्टावलिये मुनिराज श्री दर्शन विजयजीके पास भी हैं जिन्हें वे पट्टावलि संग्रहके दूसरे भागमें प्रकाशित करनेवाले हैं। उनके संग्रहमें मुझे जहांतक ख्याल है, आगमगच्छीकी भी एक पट्टावली है। . अभी आचार्य श्रीविजयेन्द्रसूरिजीके पास आगमगच्छके आचार्य परंपरा- . की नामावलीगर्भित दो लधु कृतियें नजर आई उनमेंसे एक संस्कृत भाषामें ९ श्लोकों की है और दूसरी प्राचीन गुजराती भाषामें । दोनों में ही इतिवृत्त कुछ भी नहीं है केवल नामावली है। उनमें से भाषाकी गुर्वावली इस लेखमें प्रकाशित की जा रही है । इसमें आचार्योंकी नामावली निम्नोक्त प्रकारसे पाई जाति है।
शीलगुणसूरि, देवभद्रसूरि, धर्मघोषसरि, यशोभद्रहरि, सर्वाणंदमुरि, अभयदेवमूरि, वनसेन सरि, जिनचन्द्रसरि, हेमसिंहसूरि, रत्नाकरसूरि, विनय. सिंहसूरि, गुणसमुद्रसूरि, अभयसिंहसरि, सोमतिलकसूरि, सोमचन्द्रमूरि, गुणरत्नसूरि, मुनिसिंहमूरि, शीलरत्नसरि (सं १५०७), आणंदप्रभसूरि (१५१३ से १५२७), मुनिरत्ननुरि (१५४२)२०.
इसके बाद कौनसे कौनसे आचार्य हुए व इनका समय क्या है ? इत्यादि विषयों में प्रतिमा लेख संग्रह आदि के आधार से लिखने का विचार था पर समय एवं साधनाभाव से अभी नहीं लिखा जा सका। प्रतिमा लेख संग्रह के लेखोंमें आगामगच्छके जिन आचार्योके नाम आते हैं उनमें प्रायः इस गुर्वावलीसे भिन्न हैं अत: इस गच्छकी अन्य शाखायें भी होंगी ऐसा प्रतीत होता है। पता नहीं मुनिराज दर्शनवियजीके पास कौनसी शाखाकी पट्टावलि है, किन्तु यदि वह शीघ्र प्रकाशित हो जाय तो इस गच्छके संबंधमें बहुत कुछ नया ज्ञातव्य मिले । 'प्रवचन परीक्षा में आगमिकगच्छका अपर नाम “ त्रिस्तुतिक" एवं उसकी उपत्ति सं. १२५०में लिखी है। उसमें यह भी लिखा है कि शीलगुणसूरि तथा देवेन्द्रसरिने पौर्णमियगच्छ छोड अंचलगच्छका स्वीकार कर फिर इस गच्छको स्वीकारा। इसी प्रकार हमारे और भी बहुत से गच्छोंका इतिवृत्त अंधकारमं पडा है । आशा है-साहित्यप्रेमी सजन अन्वेषण करके उस पर समुचित प्रकाश डालेंगे।
For Private And Personal Use Only