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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनदर्शनका कर्मवाद लेखक- आचार्य महाराज श्रीविजयलब्धिसूरिजी [ गतांक से क्रमश: ], पांचवे आयु कर्मके चार भेद हैं-देवायु, मनुष्यायु, तिरीगायु और नरकायु । ये चार भेद अनुक्रमसे देव, मनुष्य, तिर्यच और नारकीकी गति में जीवको थाम रखते हैं । जब तक उन उन गतियोंका आयु पूरा नहीं होता, वहां तक उन उन गतियों में रुलना ही पडता है, चाहे सुखकर हो या दुःखकर । इस कर्मको बेडी जैसा माना है । तात्पर्य यह हुआ कि जैसे कैदी चाहता है कि मेरे बन्धन तृट जांय और मैं यहांसे छुट जाउं मगर मर्यादा पूरी होने के बाद ही वह वहांसे निकल सकता है, इसी तरह नारकगतिके असह्य दुःखसे घबराया हुआ जीव वहांसे निकलना चाहे तो भी आयुष्य पूरा होने के सिवाय नहीं निकल सकता | आयुष्य कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागरोपमकी है, और यह देव और नारकगतिकी अपेक्षासे है । मनुष्य तिर्यचकी तीन पल्योपमको उत्कृष्ट स्थिति होती है । देव, मनुष्य और तिर्यचके आयुः पुण्यप्रकृतिरूप हैं और नारकायुः पापप्रकृतिरूप है । छठे नामकर्मके ६७ भेद हैं । इन्होंका स्वरूप और भेदसंख्या इस प्रकार है--नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति नामके स्थानों में रहे हुए उन उन पर्याय की परिणतिका निदानभृत कर्म नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगतिके नामसे व्यवहृत है । एकेन्द्रिय, हीन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय ये पांच जीवोंकी जाती है, उनका निर्माण करनेवाले नामकर्मके एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय जाति आदि पांच जातिनामकर्मके भेद समझने चाहिए । पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायुः और वनस्पति ये सब जैनदर्शनमें जीव माने गये है, इनको मात्र स्पर्श-त्वचा-इन्द्रिय होनेसे ये एकेन्द्रिय कहे जाते हैं । स्पर्श और रसेन्द्रिय - जिहूवेन्द्रिय दो इन्द्रिय जिनमें हो वे पोरा, जक, अलसीप, लटें आदि द्वीन्द्रिय कहे जाते हैं । स्पर्श, रस और नालिका इन्द्रियवाले श्रीन्द्रिय कहे जाते हैं जैसे कि व्युटि खटमल आदि जीव । स्पर्श, रस, घ्राण और चक्षुः ये चार इन्द्रिय जिनमें होती हैं वे मक्षिका, भ्रमर भ्रमरी आदि चतुरिन्द्रिय कहे जाते हैं । इन चार इन्द्रियोंके साथ कान नामकी इन्द्रिय बढ जानेसे पंचेन्द्रिय कहे जाते हैं । सब मनुष्य, देव, भैंस, गाय, बैल आदि तिर्यच और नारकीके सभी जीव पंचेन्द्रिय गिने जाते हैं । इन सब जातियोंको उत्पन्न करनेवाले कर्म केन्द्रिय आदि पांच भेद से पांच जातिकर्मके नामसे प्रसिद्ध हैं । औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण नामके पांच शरीर हैं । इन्हें उत्पन्न करनेवाली For Private And Personal Use Only
SR No.521564
Book TitleJain Satyaprakash 1940 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1940
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size21 MB
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