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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - જેનદનકા કર્મવાદ [ ७] पांच शरीरनामकर्मकी प्रकृति है। मनुष्य और जानवरोंके शरीरको औदारिक शरीर कहते हैं। यह स्थूल है और परमाणुसंख्या इनमें कम होती है । यों तो यह शरीर शोभास्पद नहीं है, मगर तीर्थकर भगवान् इसी देहमें हो कर जगत् परका कल्याण करते है इस लिये यह शरीर 'उदार' शब्द परसे औदारिक कहा जाता है। एकेन्द्रियसे ले कर चउरिन्द्रिय तक का भी यही शरीर है । नारकी और देवके शरीर चैक्रिय हैं । औदारिक की अपेक्षा सूक्ष्म होने पर भी परमाणु बहुत ही ज्यादा होते हैं । आहारक शरीर इससे भी सक्षम और परमाणु परिणामसे बहुत ही बढा चढा होता है । चतुर्दश पूर्वधर मुनि शंका समाधान करने के लिये इसे बनाते है, और विद्यमान तीर्थकर केवली महाराज जहां हो वहां, बहुत ही दूर दूर जा सकते है, और सब कार्य अन्तर्मुहूर्तम कर लेते है । तैजस और कार्मण ये दो शरीर जहां तक मुक्ति प्राप्त न करे वहां तक जीव के साथ ही लगे रहेते हैं। तैजस खुराक पकानेका काम करता है, और कार्मण नई स्मृष्टिका पुनः पुनः निर्माण करता है । किसी किसी समय तेजस लब्धिमें काम आता है। प्रथमके तोन शरीर के अंगोपांग बनानेवाले औदारिक अंगोपांग, वैक्रिय अंगोपांग और आहारक अंगोपांग ये तीन प्रकृतिएँ हाथ, पांव, छाती, पोट आदि अष्टांग और अंगुली आदि उपांग को बनाती है। बज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच, अर्धनाराच, कीलिका और छेवठ्ठा ये छ संघयणनामकर्म शरीर की हड्डीयोंकी मजबुतीकी तारतम्यताका काम करते है । वज्रऋषभनाराच संघयणम वनका अर्थ कीलिका, ऋषभका अर्थ पाटा और नाराचका अर्थ मर्कटबन्ध होता है । मतलब यह हुआ कि बंदरीको उसका बच्चा ऐसा चिपक जाता है कि बंदरी कुदती फिरती है फिर भी वह बच्चा नीचे नहीं गिरता । इसी तरहसे हड्डीयों का मेल जोल बना हो, वह नाराच कहा जाता है । उस पर पट्टे की मजबूतीको वन कहते हैं और उस पर कीलिका लगा दी जाय, इन तीन शब्दोंके अर्थ जिस संघयणमे सार्थक हो वह संघयण वनऋषभनागच कहा जाता है । इस संघयणको पाया ही वही जीव मुक्तिमं जा सकता है । इस मनुष्यको हड्डी उतरनेका या भगनेका भय नहीं रहता है । इस संघयणवाला अगर पूरे पापाचारमें पड जाय तो सातमी नारकीम भी चला जाता है । दूसरा ऋषभनाराच-इस संघयण में कीलिकाका अर्थ निकल गया जिससे पहिले संघयणवालेसे इसकी मजबुती कम हुई, अतः इस संघयणवालेकी शक्ति मुक्ति पाने की भी नहीं और सबसे ज्यादा नीची हालत की सातमी नारकीमें जानेकी भी नहीं होती। तीसरा नाराच-इम में सिर्फ कीलिकायुक्त हड़ीये सिद्ध होती है। यह उपर के संघयणसे भी कमजोर हुआ। चोथा अर्धनाराच आधी पकड ही कायम रही। पांचवा कीलिका मात्रसे अनुबद्ध और छठा छेवट्ठा मामुली जोड मेलवाली हड्डीएं । आजकल के मनुष्योंको यही संघयण है जिससे आजकल के For Private And Personal Use Only
SR No.521564
Book TitleJain Satyaprakash 1940 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1940
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size21 MB
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