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અંક ૩] ‘ઉંચે ઊળ” અંગે પત્રવ્યવહાર
[१२] कथा के प्रारम्भमें वे लिखते हैं" यह एक कल्पित कथा नहीं है किन्तु विचारप्रवर्तक सत्यकथा है । कथाके अन्तम वे लिखते हैं -
"प्रिय पाटक! आपको कदाचित् ऐसा प्रतीत होगा कि जो कथा.. मैंने उपर लिखी है वह ऐतिहासिक नामके बहानेसे लेखकके विकृत भेजेसे निकली हुई एक कल्पित कथा होनी चाहिए! किन्तु दुर्भाग्यसे यह कथा अक्षरशः सत्य है।” - इससे आप देख सके होंगे कि- 'ऊंचे देऊळ' कथा विषयक आपके अभिप्रायमें व उसके लेखकके अभिप्रायमें बडाभारी अन्तर है। जिस कथाको आप दन्तकथाके उपर अवलम्बित व कल्पितपात्रयुक्त मानते हैं उसे लेखक अक्षरशः सत्य बतलाते हैं ।
जिस कथाकै प्रारम्भ व अन्तमें लेखकने, वह कथा ऐतिहासिक एवं अक्षरशः सत्य होनेका, ऐसा निशंक उल्लेख किया हो उस कथाको पढनेपाला उसे, आपकी तरह. दन्तकथारूप या कल्पितपायुक्त कैसे मान सकता है ?
आपके लिखे अनुसार क्षणभर के लिए मान लिया जाय कि इस कथामें उल्लिखित जैन यति एक कल्पित व्यक्ति है तो क्या कथालेखकको इस कथा में जनयतिक पात्रकी कल्पना इसी लिए करनी पड़ी कि-एक अहिंसापरायण घ दयामूर्ति जन साधुको अत्यन्त निर्दय व एक मनुष्य के प्राण लेनेका दुष्ट आशयवाला सिद्ध किया जाय ? एक जैन साधुके लिए ऐसा सिद्ध करनेकी चेष्टा करना सहृदयताका खून.. करना है। उससे हजारों धर्म - परायण हृदयोंको दुःख हुए बिना नहीं रह सकता और ऐसी चेष्टाको कोई भी समाज सहन नहीं कर सकता।
अब आप समझ सकते हैं कि ( आपके लिखे अनुसार ) न तो हमने 'ऊंचे देऊळ' के लेखकके हेतुको समझने में दुर्लक्ष्य किया है और न हमने लेखकके उपर किसी प्रकारका निरर्थक दोषारोपण किया है। श्रीमान् द. पां. खांबेटेके पत्रमें हमने जो कुछ लिखा है वह उन्होंके उल्लेखके आधारपर लिखा है । और उसका उचित समाधान करना श्री. खांबेटे महाशयके लिये अत्यन्त आवश्यक है । किसी कारणले एक भूल हो जाय तो उसे यथासमय सुधारलेने में संकोच नहीं होना चाहिए। किसी कार्य में भूल न होना जितना आवश्यक है उससे अधिक आवश्यक भूल होजाने पर उसे सुधार लेना है । ऐसा करके मनुष्य अपनी साफदिली व नैतिक हिम्मतको सिद्ध. कर सकता है। मुझे आशा है-आप यह बात श्री. खांबेटेको समझाने का प्रयत्न. अवश्य करेंगे । अस्तु ।
अन्तमें-आपसे प्रार्थना है कि-'ऊंचे देऊळे' के सम्बन्धमें, एक पत्र. । सम्पादककी हैसियतसे, आपका जो प्रामाणिक मत है (जैसा कि आपने
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