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સંશોધન
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करके गुजरात गए, क्यों कि आगरे के श्री चिन्तामणिपार्श्वनाथजी के भूमिगृह में उक्त संवतादि की श्री शीतलनाथजी की एक मूर्ति है जिसपर आपका भी नाम है। इन प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि उ० श्री भानुचंद्रजी सं० १६४४ से १६६७ तक सम्राट् के दरबार में रहे।
टिप्पणी-श्री हीरविजयसूरिरास पृ० १६२ कडी ४४ में उल्लेख है कि उ० श्री शान्तिचंद्रजी श्री जगद्गुरुजी की सेवा में सिद्धपुर में उपस्थित हुए (सं० हिंदी का प्रारंभकाल) किन्तु फिर हबीबला खोजे के उपद्रव के कारण हिं० सं० १६४७ के चतुर्मास के समय में श्री जगद्गुरुजी को खंभात से विहार कर जाना पड़ा। इसके दमन के लिए मुनि श्री धनविजयजी को सम्राट के पास भेजा, वहां वे श्री शान्तिचंद्रजी से मिले (पृ० १६५ कडी १३ से १८ तक,) जिस प्रकार यहां पर शान्तिचन्द्रजी का नाम लिखना भूल है (क्यों कि वे तो इससे पहिले ही आ चुके थे) इसी प्रकार से इस रास के पृ०१४६ कड़ी ८ में शान्तिचन्द्रजी के साथ भानुचन्द्रजी का नाम भी होना भूल है (क्यों कि श्री भानुचन्द्र चरित के उल्लेखानुसार उस समय तक सम्राट के पास पहुंचे ही न थे इस संबंध में चरित से अधिक महत्त्व रास को नहीं दिया जा शकता)। उक्त स्थानों में शान्तिचन्द्रजी के नाम के स्थान में तो भानुचन्द्रजी का नाम चाहिए, किन्तु भानुः चन्द्रजी के नाम के स्थान में किनका नाम होना चाहिए कहा नहीं जा सकता। यदि वास्तव में यहां पर भी किसी साधु का ही नाम होना चाहिए तो श्री शान्तिचन्द्रजी के साथमैके किसी साधु के नामके भानुचन्द्रजी का नाम लिखने की भूल हुई है।
(४) उपाध्याय श्री भानुचन्द्रजी अपने शिष्य खुश्फहम बिरुदधारी श्री सिद्धिचंद्रजी के साथ में आगरे से विहार करके गुजरात में आए और हिंदी सं.१६६८ का चौमासा अहमदाबाद में किया । फिर सं० १६६९ का चौमासा पाटन में विहार कर रहे थे तब जहांगीर का फर्मान बुलाने का पहुंचा अतः विहार करके सं० १६६२ के जाड़ों में गुरु शिष्य आगरे आए (क्यों कि तुझुके जहांगीरी में रामदास का आगरे में आनेका यही समय लिखा है ) पश्चात् श्री सिद्धिचंद्रजी की परीक्षा जहांगोर द्वारा लिए जानेके कारण उनको निकाल दिया अतः वे मालपुरे में आनकर चौमासा रहे साथ में जहांगीर ने अन्य साधुओं को भी बाहर निकल जानेका हुकम दिया जिससे बड़ी अशांति हुई । फिर वे उपाध्यायजी के ऊपर जहांगीर का प्रेम होने से बुलाए गए अतः समहोत्सव उनका आगरे में प्रवेश हुआ। जब वे जहांगीर से मिले तो अन्य साधुओं पर से भी निकल जानेका हुकम रद कराया । यह सारी घटना हिं० सं० १६७० आश्विन सुद २-३ से पहिले घट चुकी थी क्योंकि उक्त तिथि को जहांगीर आगरे से अजमेर चला गया था । श्री विजयतिलकसूरिरास ( कड़ी १०६९ ) सं० १६७२ चैत्र की अमावस से पहिले उ० श्री सोमविजयजी ने ३६ बोल प्रकट किए थे। उन बोलों की सूचना उपाध्याय
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