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શ્રી જેન સત્ય પ્રકાશ
[ वर्ष ६
बोधयन्तः प्रतिग्राम भव्यलौकांश्च भूरिशः। गूर्जरं पावनीचक्रुः क्रमात् श्री हीरसूरयः ॥ १२६ ॥ " ,
(प्रथमसर्ग ) इसके पश्चात् श्री हीरविजयसूरिजी ने आपके मिलनेपर आपको योग्य जानकर सम्राट अकबर के पास भेजा तब आप लाहोर में आकर सम्राट् से मिले हैं और आपका प्रभाव ठीक जमजानेपर उपाध्याय श्री शान्तिचंद्रजी रजा लेकर आने आदि का वर्णन दूसरे प्रकाश में है। आपने इस चरित के सार पर से सं. १६३९ से १६६२ तक २३ वर्ष निश्चित किया हैं (पृ. २८०) वे भला ठीक कैसे हो सकते हैं? क्यों कि श्री हीरविजयसूरिजी गुजराती सं. १६३९ जेठ वदि १३ को फतहपुर पहुंचे थे उनके साथ के साधुओं के भी २५-३० नाम मिलते हैं परन्तु आप जैसे प्रसिद्ध दक्ष कार्यकर्ता का नाम लिखने की उपेक्षा कोई भी लेखक नहीं कर सकता था। बल्कि सब ग्रन्थों में एक समान उल्लेख है कि श्री जगद्गुरुजी ने उपाध्याय श्री शान्तिचन्द्रजी को सम्राट के पास छोडकर हिंदी सं० १६४२ का चौमासा इब्राहीमाबाद में किया था । अतः उस समय तक भी श्री भानुचन्द्रजी श्री जगद्गुरुजी को न मिले थे। तब फिर आपने यह कैसे लिख दिया कि जगद्गुरुजी सम्राट् को उपदेश देने का कार्य इन दोनों के सुपुर्द करके गुजरात पधारे थे (पृ० २२७ )।
ऐतिहासिक अनुसंधानों से जान पड़ता है कि सं० १६४४ हिंदी का चौमासा श्री जगद्गुरुजी ने नागोर में किया था या तो वहांपर से अथवा चौमासे के बाद विहार करके पीपाड होकर जब वे सिरोही (सं० १६४४ जाडों में) पधारे थे तो गुजरात से श्री विजयसेनसूरिजी आनकर उनसे मिले तब उन्होंने आपको सम्राट के पास लाहोर भेजा (आपके चरित के उल्लेखानुसार श्री हीरविजसूरिजी फिर भी गुजरात में तो नहीं पहुंच सके थे परन्तु उसकी हद के पास तो पहुंच ही गए थे)। अकबरनामा भा० ३ से भी यह समय ठीक जान पड़ता है, क्यों कि उसमें उल्लेख है कि सम्राट अकबर ता० ११ शहरीवर सन् ३० इलाही (२४ अगस्त १५८५ ४०, विक्रम हिं० १६४२ भादों सुदि ९) को फतहपुरसीकरी से रवाना होकर पंजाब में गए और वहां का दौरा लगाने के बाद १५ खुददि सन् ३१ इलाही (२५ मई १५८६ ई०, विक्रम हिं० १६४३ आषाढ बदी ४) को लाहोर में पहुंचे थे। अतः लाहोर में पहुंच ने से पहिले आपका सम्राट से मिलने का अनुमान करना सर्वथा अप्रामाणिक है।
'श्री जैन साहित्य संशोधक' खं० १ अ० ४ पृ० १५३ में श्री विजयसेनसूरिजी का सं० १६६७ का मेवात देश का क्षेत्रादेश पट्टक उपलब्ध है उसमें साफ लिखा है कि " उपाध्याय श्री भानुचन्द्र ग० आगरामध्ये"। अतः सं० १६६७ में आप आगरा में चातुर्मास अवश्य रहे । और सं० १६६७ माघ सुदि ६ को श्री चन्दु संघवी के नवीन मंदिर में किए हुए प्रतिष्ठोत्सव के बाद आप विहार
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