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२] જૈનદર્શન કે કર્મવાદ
[८५) अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ-जिस आदमीका गुस्सा, अभिमान, कपट और लालच जीवन पर्यंत एक रूपसे जारी रहे वह अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क कहलाता है। वह सर्वज्ञ भगवानके कहे हुए सच्चे धर्म की प्राप्ति को रोकता है, मतलब जब तक ये चार
और उनका सहायक मिथ्यात्व नहीं मिटता तब तक सम्यक्त्व नहीं हो सकता। अप्रत्याख्यानीय क्रोध, मान, माया और लौभ देशविरति गृहस्थ-धर्मको रोकते हैं। ये चारों वर्षकी स्थितिबाले हैं, याने एक रूपसे एक वर्ष तक जारी रहकर हटते हैं। प्रत्याखानीय, क्रोध, मान, माया और लोभ चार महिनेको मर्यादावाले हैं और चारित्रको रोकते हैं, अर्थात् आत्मामें साधुधर्म नहीं आने देते । संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ यथाख्यात नामके चारित्रको रोकते हैं । उस चारित्रका नाम वीतराग-चारित्र कहा जाता है, और इसके आनेसे ही केवलज्ञान हो सकता है । ये सोलह प्रकृति हुई । हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा ये छे भेद-पुद्गल संवन्धि हांसी खुशी, रंज, भय, शोक और धृगाके जनक हैं । स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद, ये तीन वेद अनुक्रमसे पुरुष, स्त्री और उभय के संयोगजन्य सुखकी अभिलाषाको उत्पन्न करते हैं। ये नौ प्रकृति सोलह में मिलानेसे २५ भेद हुए और २६ वा मिथ्यात्व जो विपरीत श्रद्धाका कारण हैं। बन्धमें ये २६ प्रकृति होती हैं। मिथ्यात्व के पुद्गलको उपशम सम्यक्त्वद्वारा सफा करनेसे जो शुद्ध पुद्गल हों वे समकितमोहनीय और अर्धशुद्ध हों वे मिश्रमोहनीय कहलाते हैं । ये दो प्रकृति के उदय और सता होते हैं, बन्ध नहीं होता, कारण कि बन्ध तो मिथ्यात्व का ही होता है। पीछे से आत्मगत मिथ्यात्व का शुद्ध परिणाम सफा करता है, इससे समकितमोहनीय और मिश्रमोहनीय बनते हैं। इनके कार्य अनुक्रमसे सम्यक्त्वमें कुछ एक कमी और सर्व धर्मकी समानता या वीतराग धर्मका अद्वेष है। सत्ता और उदयमें ये हो सकते हैं इसलियै २८ भेद हुए । गुस्सा, गर्व, फरेब, तमाह, मैथुन, व्यभिचार, हसना, रुसना, रोना आदि सब आफतें इस मोहनीय कर्मसे होती हैं । धर्मीयों की यही भावना रहती है कि प्रभु इससे बचावे । दूसरे सब कर्मका यह राजा है, इसके हननसे सर्वका हनन अतीव सुकर हो जाता हैं। इसकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोटी कोटी और अबाधाकाल ७००० वर्षका है। यह मदिरा जैसा स्वभाववाला कर्म चेतनको भानभुला बना देता है। (क्रमशः)
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