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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ८४ ] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [ स्थान न प्राप्त हो वहांतक यह कर्म सदैव जारी रहता है । इसका स्वभाव पहेरेदार जैसा है, मतलब - कोई मनुष्य नृपतिका दर्शन करना चाहे, पर पहरेदार इससे बरखिलाफ हो तो नहीं करने देता, इसी तरह आत्मामें चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवलदर्शनसे जगत भरके पदार्थोंका सामान्य बोध हो सकता है मगर इनके आवरण नहीं करने देते । और पांच निद्रा भी इसीकी रुकावट करती है । भेद सिर्फ इतना ही है कि प्रथम के चार भेद दर्शनलब्धि को रोक देते हैं और पीछे की पांच निद्रा दर्शनोपयोग को रोकती हैं । तीसरे वेदनीय कर्म दो भेद हैं- एक साता वेदनीय और दूसरा असातावेदनीय । यह कर्म सुख - दुःखको उत्पन्न करता है, इस लिये इस विषय में भी परमात्माको दखल नहीं है, और " दखल मानी जावे तब वह, दुःखदाता है, ऐसा भी मानना पडेगो, और ऐसी मान्यता में परमकृपालु प्रभुका करुणासागर विशेषण किस तरह टीक सकेगा, यह विचारनेकी आवश्यकता है। अगर कहा जावे कि उसने वैसा ही कर्म किया उसका फल प्रभु देता है, तब तो कर्म ही दुःखदाता हुआ और वह पुद्गल स्वरूप होने से सुखदुःखका जलवा स्वयं दिखा सकता है, यह सिद्ध हुआ और प्रभुको दाता मानने में सर्व शक्तिमान् सकल चराचरका ज्ञाता प्रभु कर्म करते ही क्यों नहीं रोकते, और फल देने को तैयार रहते हैं, यह सवाल भी पेश नहीं हो सकता । वेदनीयकर्म से ही सुख दुःख प्राणिके उपर अपना प्रभाव जमा सकता है याने सुख दुःखका होना यह इस तृतीय कर्मका कार्य हुआ । सातावेदनीय कर्मकी १५ कोटीकोटी की और असाताकी ३० कोटीकोटीकी स्थिति है, अनुक्रमसे १५०० ओर ३००० वर्षका अबाधाहै | यह कर्म धुलित तलवार की धार के आस्वाद जैसा माना जाता है, तात्पर्य यह हुआ कि जैसे तलवारको धार पर रहे हुए मधुके आस्वादसे, स्वल्प सुख है और जिह्वा पर धारके लगजानेसे बड़ा भारी कष्ट है, ऐसे इस वेदनीय कर्ममें सातावेदनीयका सुख बहुत स्वल्प है और असातावेदनीयका दुःख जगतमें थर रूपसे जमा हुआ हैं । असातावेदनीय पाप प्रकृति समजी जाती है और सातावेदनीय पुण्यप्रकृति है । यह कर्म परावर्तनीय है । साता बांधता हो तो असाता नहीं बांध सकता, और असाता बंध जाती हों तों साता नहीं बांध सकता। एक दूसरे के परावर्तन होनेके सबसे यह कर्म परावर्तनीय कहा जाता है | अब चौथा कर्म मोहनीय है । उसका स्वभाव मोह उत्पन्न करनेका है, और इसकी २६ प्रकृति बन्धमें और २८ उदय और सत्तामें हैं । यह सब पापप्रकृति है इसलिये इसके बंध आश्रित २६ भेद पापप्रकृति है । इसमें कोई पुण्यप्रकृत्ति नहीं है । For Private And Personal Use Only
SR No.521563
Book TitleJain Satyaprakash 1940 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1940
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size21 MB
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