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जैनदर्शन का कर्मवाद लेखक-आचार्य महाराज श्रीविजयलब्धिमूरिनी
[ गतांक से क्रमशः ] दर्शनावरणीय कर्मके चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय केवलदर्शनावरणीय, निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और स्त्याना ये नव भेद हैं । नेत्र संबन्धी ज्ञानमें और शेष इन्द्रियके ज्ञान में सामान्य बोधको रोकनेवाले अनुक्रमसे चक्षुदर्शनावरणीय व अचक्षुदर्शनावरणीय कहे जाते हैं । रूपी पदार्थ के सामान्य अवबोधको रोकनेवालेका नाम अवधिदर्शनावरणीय है। सामान्यकी प्रधानता और विशेषकी गौणतात्मक बोधकों आच्छादित करनेवाला केवलदर्शनावरणीय कहा जाता है। सोता हुआ सुखसे जागे उसे निद्रा कहते हैं, और बैठे बैठे या खडे खडे निन्द लेनेका नाम प्रचला, और चलते हुए निन्द लेनेका नाम प्रचलाप्रचला, और दिनमें कोई भी कार्य चिन्तवन किया हो, उसे रातको निद्रामें कर डाले वह स्त्यानर्द्धि निद्रा कहलाती है। निन्द उडजाने पर निन्दवाला नहीं जानता कि मैंने यह काम किया है। इस निदमें बडी जबरदस्त शक्ति आ जाती है । अगर हिंसात्मक परिणाम आ जाय तो इस निन्दमें वह मांसाहारका अभ्यासी हो, और दिनमें मांस खानेका इरादा हों जावे, परन्तु किसी रुकावटसे वह कार्य न कर सके, और रात्रिको सोते हुए को स्त्यानईि नामकी निन्दका उदय हो आवे तो जिस भेंसेके मांसको वह चाहता हो; रातको ही उठकर निंदमें उसे फाड डालता है। यह प्रकृति भी पूरी अज्ञानता की द्योतक है । ऐसी बेहोश दशाको देनेवाला दर्शनावरणीय कर्मको ही मानना उचित है।
हमारे अनन्त-ज्ञान-दर्शन-वीर्यवाले हितकारी वीतराग प्रभु ऐसी हालत कैसे प्राप्त करा सकते हैं ? ये नव पापकी प्रवृत्ति ही ऐसा कराती हैं ।
इस कर्मके बन्ध उदय और सत्ताकी प्रकृति बराबर है। इसकी स्थिति तीस कोटीकोटी सागरोपमकी है। तीन हजार वर्षका अबाधाकाल है । एक सागरोपम असंख्यात वर्षों का होता है, ऐसे तीस कोटीकोटी सागरोपम तक यह कर्म अपना प्रभाव दीखाता है। और हट जाता है। इतने में दूसरा इसके दूसरे समयमें बन्धा हुआ तैयार रहता है, जब तक संपूर्ण यथावत् श्रद्धा ज्ञान और चारित्रसे मुक्ति या तेरहवां गुणस्थान या क्षपक श्रेणिसे दशवां और बारहवां गुण
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