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[१८] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
[ वर्ष । 'सत्यार्थ प्रकाश' के विद्वान लेखक ने इस प्रकार धोखा क्यों खाया होगा ? कदाचित् स्वामीजीने किसी कारण से लिख भी दिया हो पर पिछले संशोधकों ने अन्यान्य आवृत्तियों में कई प्रकार के संशोधन किये हैं फिर जैनधर्म विषयक गलत लेख की ओर उनका लक्ष क्यों नहीं पहुंचा ? इससे पाया जाता है कि यह केवल अनभिज्ञता ही नहीं पर इसमें द्वेषभाव का अंश भी शामिल है। यता ऐसे भ्रातिपूर्ण लेखों के प्रतिकार के लिये अनेक ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हैं परन्तु मैं आज खास बौद्ध ग्रन्थों के एक दो प्रमाण पाठको की सेवा में पेश करदेता हूं कि जिससे पाठक स्वयं निर्णय कर लें कि जैनधर्म और बौद्धधर्म एक हैं या पृथक् पृथक हैं ?
बौद्ध-साहित्य त्रिपिटक के नाम से मशहुर है जैसे-१ विनय पिटक २ सुत्त पिटक ३ अभिधम्मपिटक । जिसमें सुत्त पिटक के पांच निकाय हैं, उसके दूसरे मज्झियनिकाय ग्रन्थ में स्वयं महात्मा बुद्ध अनेकवार जैन निग्रन्थों से मिले, उनसे वार्तालाप कर अपने भाव प्रदर्शित भी किये, जैसे
" एकमिदाइ महानाम समयं राजगहे विहरामि गिजकुटे पव्वते ते नखोपन समयेन संवदूला निगण्ठा इसिगिलियस्से कालसेलायं उब्भन्थकाहान्ति आसनपटि क्खिता ओपमिका दुक्खतिप्पा कटुका वेदना वेदयन्ति अयखोहं महानाम ! सायण्हं समयं पटि सल्लाणा बुट्टितो येन इसि गिलिपस्सम कायसिला येन ते निगण्ठा तेन उपसंकपिम उपसंकमिचा ते निगण्ठो ए तदवोचम किन्नु तुम्हें आबुसो तुठभदुका आसनपटि क्खिता आपकमिक्का दुक्ख तिप्पा कटुका वेदना वेद यथाति एवं बुते महानाम ते निगण्ठा एतदवोचु । निगण्टो आवुसो नायपुतो सव्वन्नु सव्वदस्सी वी अपरिसेसं ज्ञाणदस्सन परिजानंति चरतो च मे तितो च सुतस्स च जागरस्स च सततं समितं नाणदस्सनं पचुपहितंति सों एवं आह अत्थि खोवो निगण्ठा पूव्वं पापकम्मं कत्तं तइमाया कटू कायदुक्करिकारि कायनिज्जरे थपने एतरहि कायेन संबुता वाचापसंबुतो मनसां सवुता तं आयति पापस्स कम्मस्स अकरणं इति पुराणानं कम्मानं तपसाब्बन्ति, भावानवानकम्मं न अकरणा आयतं अनवस्स वो आयतिं अनवस्स वो कम्मक्खयो कम्मक्खया दुक्खयो दुक्खया वेदनाक्खयो सव्वं दुक्खनिज्जएणं भविस्स तितं च पन् अम्हकं रुच्चति चेव खमति च ते न च अम्हा अत्तमानति"
| P. T. D. Majjhim Vol. 181 PP. 92-98 भावार्थ-महात्मा बुद्ध अपने महानाम भिक्षुक को कहते हैं-महानाम ! मैं एक समय राजगृह गया था और गुद्धकुट पर्वत पर विहार कर रहा था उस समय ऋषिगिरि के पास कालशील पर्वत पर बहुत से निर्ग्रन्थ (जैनमुनि ) आसन छोडकर उपक्रम और कठोर
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