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જૈનધર્મ કી ઐતિહાસિકતા
[८]
तपस्या कर रहे थे । महानाम ! मैं सायंकाल के समय उन निर्ग्रन्थों के पास गया और उनको कहा कि-अहो निर्ग्रन्थो ! तुम आसन छोड उपक्रम कर ऐसी घोर तपस्या कर वेदना का अनुभव क्यों कर रहे हो? महानाम ! जब मैंने उनसे ऐसा कहा तब वे निर्ग्रन्थ कहने लगे कि-अहो निम्रन्थ ज्ञातपुत्र सर्वज्ञ और सर्वदशी हैं वे अशेष ज्ञान एवं दर्शन के ज्ञाता हैं हमारे चलते ठहरते सोते जागते समस्त अवस्थाओ में सदैव उनका ज्ञान दर्शन उपस्थित रहता है। उन्होंने कहा है कि निम्रन्थो ! तुमने पूर्व जन्म में पापकर्म किया है उनकी इस घोर दुष्कर तपस्या से निर्जरा करो क्योंकि तपस्या से पुराने कर्मोंका क्षय होता है कर्मक्षय से दुःखक्षय होता है दुःखक्षय से वेदनाक्षय और वेदनाक्षय से सर्व दुःखों की निर्जरा होती है। इस पर बुद्ध कहता है कि यह कथन हमारे लिये रुचिकर प्रतीत होता है और हमारे मन को ठीक जचता है।
यदि भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध तथा जैनधर्म एवं बौद्धधर्म एक ही होता तो महात्मा बुद्ध यह क्यों कहते कि निम्रन्थकी तपस्यादि हमको रुचिकर एवं हमारे दिल में जचती है ? अतः ये दोनों धर्म पृथक् पृथक् हैं ।
एक दूसरा प्रमाण भी बौद्ध ग्रन्थो में मिलता है जैसे कि
" एकं समयं भगवा सक्खेसु विहरति सामगामे तेन खोपन समयेन निग्गन्थे ज्ञातपुत्तो पावायं अधुना कालकतों होति तस्स कालकिरियाय भिन्न निगण्ठे दोवधिक जाता, भंडन जाता कलह जाता विवाद पन्ना अण्णमण्ण मुक्खसेति ही विदुदत्ता विहरति ( मज्झिमनिकाय ग्रन्थ )
भावार्थ-एक समय भगवान् बुद्ध शाक्यदेश के साम ग्राम में विहार करते थे तब सुना कि पावा में निर्ग्रन्थ-ज्ञातपुत्र (महावीर) ने काल किया और उनके निर्ग्रन्थों में दो पार्टी बन गई इतना ही नहीं, पर वे आपस में लडते झगड़ते और मुख से एक दूसरे को भले बुरे भी कहते हुए फिरते हैं-इत्यादि ।
इस प्रमाण से स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि महावीर और बुद्ध अलग अलग थे और बुद्धकी मौजूदगी में ही महावीर का निर्वाण हो गया था।
डाक्टर फहरार, स्टीवेन्सन भाण्डारकर आदि विद्वानों का मत है कि महात्मा बुद्ध का घराना (कुटुम्ब) जैन धर्मोपासक था और महात्मा बुद्ध को सब से पहली शिक्षा जैन निर्ग्रथों से ही मिली थी। अब जरा निम्न लिखित तालिका की ओर ध्यान लगाकर देखिये । भगवान महावीर
महात्मा बुद्ध जन्म स्थानक्षत्री कुण्ड नगर
कपिल वस्तु माता त्रिशलादेवी
गोमति [ देखो पृष्ठ ७२]
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