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जैनधर्म की ऐतिहासिकता
लेखक : इतिहास प्रेमी मुनिराज श्री ज्ञानसुन्दरजी वर्तमान युग में प्रत्येक बात इतिहास की कसोटी पर कसकर उसका तथ्य निकाला जा रहा है। पौर्वात्य एवं पाश्चात्य पुरातत्व विशारदोंने अनेक ऐतिहासिक साधन उपलब्ध कर दिये हैं कि जिससे इतिहास-क्षेत्रपर बहुत अच्छा प्रभाव पडा और पडता जा रहा है। जिन घटनाओं का हम नाम तक नही जानते थे आज ऐतिहासिक साधनों से सेंकडों हजारों वर्ष पूर्व की घटनाएं जानने लग गये हैं. जैसे उडीसा प्रान्त की हस्ती गुफा से मिले हुए शिलालेख से महामेघवाहन चक्रवर्ती महाराजा खारवेल और उनके साथ मगध के राजा नन्द एवं पुष्पमित्रादिको जीवन तथा जिन नन्दवंशी एवं मौर्यवंशी: राजाओं को जैनधर्मोपासक मानने में लोग हिचकिचाते थे वे पूर्वाक्त साधनों से जैनधर्मके उपासक ही नहीं पर कट्टर प्रचारक सिद्ध हो गये हैं। इसी प्रकार कई लोंग जैनधर्म को बौद्धधर्म की शाखा कहकर अर्वाचीन बतला रहे थे पर ऐतिहासिक साधनों से भगवान महावीर के पुरोगामी भगवान पार्श्वनाथ भी ऐतिहासिक पुरुष साबित हो चुके हैं । इतना ही क्यों काठियावाड़ के प्रभासपट्टन से मिले हुए ताम्रपत्र से भगवान् नेमिनाथ जो श्री कृष्ण और अर्जुन के समकालीन हुए वे भी ऐतिहासिक पुरुष सिद्ध हो गये हैं। साथ में यह भी पता मिल गया है कि भगवान महावीर के समय जैनियों में भगवान ऋषभदेव की मूर्तियां तीर्थंकर के नाम से पूजी जा रही थी इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि ऋषभदेव कोई पुरुष जरूर हुए हैं। उनका समय बहुत दुरका है, ज्यों ज्यों इतिहास की शौध खोज आगे बढती जायगी त्या त्यों वह समय नजदीक आता जावेगा इत्यादि इतिहास ने पुरातत्त्व पर अच्छा प्रभाव डाला है।
बडे ही खेद के साथ लिखना पडता है कि इस प्रकार ज्ञानभानूकी किरणों का चारों ओर प्रकाश हो जाने पर भी अभी ऐसे लेखकों का सर्वथा अभाव नहीं हुआ है जो बिना किसी प्रमाण के एक प्राचीन धर्म को अर्वाचीन बतलाने को उतारु हो जाते हैं । इसके लिये मुख्य दो कारण होने चाहिये--एक इतिहास की अनभिज्ञता, दूसरा हृदय का द्वेष ! यदि यह कारण नहीं होता तो जैनधर्म जैसे स्वतंत्र और प्राचीन धर्म को विक्रम की छठी सातवीं शताब्दी में जन्मा ('किससे हिन्द'); बौद्धधर्म के साथ जैनधर्म को नास्तिक लिखना ('सत्यार्थ प्रकाश' पृष्ट २६५); इनके अनुकरण रूप में कई अज्ञ लोग जैनधर्म को बौद्धधर्म को शाखा ही वतला रहे हैं। क्या यह लेखकों की अज्ञानत नही है ? हमें अधिक दुःख इस बात का है कि
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