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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org. ८] 'જામે જૈનધમ [ २८५] पू० श्रोचंदन विजयजी म०-आपने बोनौली, खोंबाई में बहुत विहार किया है । आप और माणिकमुनिजी वगैरह के उपदेश से बडोत में नये जैन बने व चैत्यालय स्थापित हुआ । उस स्थापनाकार्य में लाला गंगारामजी, लाला श्रीचंदजी जमींदार, श्रीमान् जवाहरलालजी नाहटा व मा० जिनदत्तजो वगैरह का पूरा पूरा सहयोग था । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आ० श्री विजयबल्लभसूरिजी - आज पंजाब में आपका विशेष वर्चस्व है। पंजाब के संघ में आपके व्यक्तित्व के किरण फैल रहे हैं । आपके उपदेश से पंजाब में कई नये मन्दिर बने, प्रतिष्ठायें हुई, बोनौली व बढोत में मन्दिर बने प्रतिष्ठायें हुईं और गुरुकुल वगैरह संस्थाओं का निर्माण हुआ । पंजाब में ही लाहोरप्रतिष्ठा उत्सव में सं० १९८१ मे आपको आचार्य पद प्राप्त हुआ है । आपने बडौत और रायकोट आदि में नये जैन बनवाये और नाभाशास्त्रार्थ में स्थानकवासीओं से जय प्राप्त किया है । अन्तिम प्रचार - वि० सं० १९९० वै० शु० ११ को भूलना नहीं चाहिये । इस दिन से मेरठ-मुजफर जिले के सरधना वगैरह स्थानों में जैन धर्म का प्रचार जारी है। श्री यशोविजयजी जैन गुरुकुल के संस्थापक गुरुदेव श्री चारित्रविजयजी (कच्छी) म० के शिष्य प्रशिष्यों के सदुपदेश से सरधना, भमौरो, रारधना पारसो, पीठलोखर, झुडपुर, सलावा, खपराना, कर्नाल, किनौनी, खतौली, मुजफ्फरनगर, और मैरठ प्रमुख स्थानों में करीबन ढाई हजार नये जैन बने हैं। सरधना, भमौरी, रारधना, मुजफ्फरनगर व मेरठ में जिनालय स्थापित हुए हैं और श्रीमुक्तिविजयजी जैन पाठशाला की स्थापना हुई है। इसके फलस्वरूप आज पञ्जाब में तीनों फोरके के जैन विद्यमान है। यदि पञ्जाब को क्षेत्र फरसना बलवती हो जाय, और पू० महर्षि दादा साहेब श्री बूटेरायजी म० की जन्मभूमि वगैरह तीर्थो का दर्शन नसोत्र हो जाय, तो मुझे उम्मिद है कि मैं इस इतिहास को भी विशद रुप से जनता के सामने रखनेको शक्तिवान् हो जाऊंगा । इतिहासविदों का भी कर्तव्य है कि वे इसे पढकर इस विषय पर अधिक प्रकाश डालें और पंजाब के जैनों को इतिहास के जरिये उन्नति के पथ पर अग्रसर बनावे । पूज्य मुनिवरों को सादर विज्ञप्ति है कि वे पञ्जाब में विहार बढाकर जैनधर्म का अधिक प्रचार करें और भ० महावीर को ध्वजा को हरहमेशा फहरावे । इतिशम् || जैनं जयति शासनम् ॥ ( समाप्त ) ५ लाहोर के मन्दिर में मूलनायक श्री सुविधिनाथ भगवान् है जिनकी अंजनशलाका ( प्राण-प्रतिष्ठा ) सं० १०७४ में हुई है, ऐसा उसपर उत्कोर्ण लेख से ज्ञात होता है । ( देखो - आत्मवल्लभ स्तवनावली ) For Private And Personal Use Only
SR No.521556
Book TitleJain Satyaprakash 1940 04 SrNo 57
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1940
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size21 MB
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